Sunday, May 29, 2011

चश्मे का रंग

दुनियाँ का रंग आपको ठीक उसी तरह दिखाई देता है जैसा कि आँखों पर लगे चश्मे का रंग होता है। अपनी अपनी पसंद और जरूरत के हिसाब हर व्यक्ति चश्मे का चुनाव करता है। काला, लाल, हरा, बैगनी इत्यादि अनेक प्रकार के शीशे वाले चश्मे सामान्य जन जीवन में आसानी से देखे जा सकते हैं। आये दिन तो एक ही चश्मे के शीशे में बहुरंगी प्रतिबिम्ब दिखाई पड़ते हैं। इस प्रकार के चश्मे को पहनने के निजी अनुभव के अभाव में कल्पना मात्र से रोमांचित हो जाता हूँ। बाहरी श्रृंगार के आधार इसे पहनने की काल्पनिक अनुभूति तो रोमांचक होनी ही चाहिए। लेकिन किस्मत की बात ही निराली होती है। आजतक कभी भी रंगहीन पारदर्शी शीशे के अतिरिक्त कोई बिशेष रंग का चश्मा मेरी आँखों पर चढ़ सका। किंचित इसी कारण दुनियाँ को वास्तविक रूप में देखने का भ्रम नहीं पल रहा मेरे अंदर।

दृष्टिविहीन व्यक्ति कोप्रज्ञा-चक्षु कहने का प्रचलन है। प्रज्ञा-चक्षु अर्थात अंतर्बोध की आँखें या फिर अंतर्विचारों का चश्मा। ऐसा नहीं कि प्रज्ञा-चक्षु के अधिकारी सिर्फ अंधे ही होते हैं वरन् यह तो ईश्वर प्रदत्त वह विशिष्ट गुण है जो हर मानव के पास शाश्वत रूप से मौजूद रहता है। अंधों के सीधे अंधा कहना कठोरता का प्रतीक माना जाता है। इसलिए प्रज्ञा-चक्षु कहना अंधेपन को शब्दों के मखमली चादर में लपेटने की कोशिश मात्र है। किसी अंधे को सिर्फ-प्रज्ञा चक्षु कह देने से उसके जीवन में उपजे सूनेपन का दर्द कम तो नहीं होता लेकिन इस तरह के कोमल शब्दों का प्रयोग किसी शुभ प्रयोजन के तरफ ही इशारा करता है।

हम बड़ी चालाकी से अपनी नाव चलाते हैं। प्रज्ञा-चक्षु, जो कि हम सबकी आंतरिक सच्चाई है, को हमने केवल दृष्टिविहीन व्यक्ति का पर्यायवाची मानकर स्वयं को स्वयं की प्रज्ञा से विमुख करने का प्रयास ही तो किया है। अगर नहीं तो आज यह दुनियाँ इतनी बदरंग क्यों है? समूह के समक्ष सत्य का खुलेआम दमन होते रहता है और समूह मात्र बेजुबान तमाशाई बनकर रह गया है। आखिर क्यों? क्या समूह अंधा है या प्रज्ञा-चक्षु विहीन? सामूहिक अंधेपन की बात शायद ही किसी को स्वीकार हो। हाँ समूह का हर इकाई निश्चित रूप से निजी स्वार्थवश अपनी अपनी प्रज्ञा से मुँह चुराकर मौन हो जाता है जो कि हमारे चारण संस्कृति का ही परिचायक है, जिसमें निन्दनीय व्यक्तियों के यशोगान की परम्परा है। सत्य की यही विवशता सामूहिक मौन का कारण बन जाती है और प्रारंभ हो जाता है सामाजिक व्यवस्था का पराभव।

दर्पण झूठ बोले अनगिनत कान इस प्रचलित कहावत के गवाह हैं। दर्पण के सामने हर व्यक्ति अपने सामान्य रूप को तो देख ही सकता है। क्या हम सचमुच अपने उस भयभीत चेहरे को देख पाते हैं? जिसकी उपस्थिति में ही सत्य के चीर हरण के अनेक दृश्य देखने को तथाकथित भीष्म जैसे महारथी भी विवश हो जाते हैं। अपनी इस कमजोरी को अन्तर्मन में नग्न देखने के लिये विवेकयुक्त विचारों का पारदर्शी चश्मा ही तो चाहिए। मन दर्पण के सामने खुद का सत्य स्वरूप देख लेना ही सामूहिक नपुंसकता दूर करने की दिशा में पहला क्रांतिकारी कदम साबित होगा। आखिर व्यक्ति से ही तो समूह या समाज की सार्थकता है। हम यहाँ भी अपनी प्रज्ञा से आँख चुराकर उसकी नैसर्गिक सक्रियता की धार को भोथरा करने की कोशिश में लगे रहते हैं और स्वस्थ विचारों के उस चश्मे के प्रयोग से वंचित रह जाते हैं जिससे दुनियाँ अपनी असली रूप में दिखलाई देती है।

एक ऐसे नेत्र चिकित्सालय की कल्पना कीजिये जहाँ मोतियाबिन्द के रोगियों का इलाज चल रहा हो। चारों तरफ गहरे रंगों के चश्मे पहने अनेक लोग मिल जायेंगे। यह तात्कालिक व्यवस्था रोगियों की आँखों को बाहर की असली रोशनी से बचाने के लिये की जाती है। क्या हम सभी मोतियाबिन्द के स्थायी रोगी हैं। रंगीन विचारों वाले चश्मे ने कहीं हमारे और सच्चाई के बीच में दीवार का तो काम नहीं किया है? सबकी अपनी अपनी पसंद और चाहत भौतिकता की अंधी दौड़ निरंतर जीवन मूल्यों को तिलांजलि देती विचार धाराओं को देखकर तो यही लगता है कि अच्छा हुआ जो कभी भी रंगीन चश्मा नहीं पहना।