Wednesday, June 29, 2011

चवन्नी का अवसान : चवनिया मुस्कान

सच तो ये है कि चवन्नी से परिचय बहुत पहले हुआ और "चवनिया मुस्कान" से बहुत बाद में। आज जब याद करता हूँ अपने बचपन को तो याद आती है वो खुशी, जब गाँव का मेला देखने के लिए घर के अभिभावक द्वारा एक चवन्नी हथेली पर रख दिया जाता था "ऐश" करने के लिए। सचमुच मन बहुत खुश होता था और चेहरे पर स्वाभाविक चवनिया मुस्कान आ जाती थी। हालाकि बाद में चवनिया मुस्कान का मतलब भी समझा। मैं क्या पूरे समाज ने समझा। मगर उस एक दो चवन्नी का स्वामी बनते ही जो खुशी और "बादशाहत" महसूस होती थी, वो तो आज हजारों पाकर भी कहाँ महसूस कर पाता हूँ?

15 अगस्त 1950 से भारत में सिक्कों का चलन शुरू हुआ। उन दिनों आम जीवन में "आना" का चलन था। आना अर्थात छः पैसा और सोलह आने का एक रूपया। फिर बाजार और आम आदमी की सुविधा के लिए 1957 में दशमलव प्रणाली को अपनाया गया यानि रूपये को पैसा में बदल कर। अर्थात एक रूपया बराबर 100 पैसा और 25 पैसा का सिक्का चवन्नी के नाम से मशहूर हो गया।

भले ही 1957 में यह बदलाव हुआ हो लेकिन व्यवहार में बहुत बर्षों बाद तक हमलोग आना और पैसा का मेल कराते रहते थे। यदि 6 पैसे का एक आना और 16 आने का एक रूपया तो उस हिसाब से एक रुपया में तो 16x6 = 96 पैसे ही होना चाहिए। लेकिन उसको पूरा करने के लिए हमलोगों को समझाया जाता था कि हर तीन आने पर एक पैसा अधिक जोड़ देने से आना पूरा होगा। मसलन 3 आना = 3x6+1=19 पैसा। इस हिसाब से चार आना 25 पैसे का, जो चवन्नी के नाम से मशहूर हुआ। फिर इसी क्रम से 7 आने पर एक पैसा और अधिक जोड़कर यानि 7x6+2 = 44 पैसा, इसलिए आठ आना = 50 पैसा, जो अठन्नी के नाम से आज भी मशहूर है और अपने अवसान के इन्तजार में है। उसके बाद 11 आने पर 3 पैसा और 14 आने पर 4 पैसा जोड़कर 1 रुपया = 16x6+4 = 100 पैसे का हिसाब आम जन जीवन में खूब प्रचलित था 1957 के बहुत बर्षों बाद तक भी।

हलाँकि आज के बाद चवन्नी की बात इतिहास की बात होगी लेकिन चवन्नी का अपना एक गौरवमय इतिहास रहा है। समाज में चवन्नी को लेकर कई मुहाबरे बने, कई गीतों में इसके इस्तेमाल हुए। चवन्नी की इतनी कीमत थी कि एक दो चवन्नी मिलते ही खुद का अन्दाज "रईसाना" हो जाता था गाँव के मेलों में। लगता है उन्हीं दिनों मे किसी की कीमती मुस्कान के लिए "चवनिया मुस्कान" मुहाबरा चलन में आया होगा। चवन्नी का उन दिनों इतना मोल था कि "राजा भी चवन्नी ऊछाल कर ही दिल माँगा करते थे"आम जन जीवन में यह गीत बहुत मशहूर हुआ जो 1977 में बनी फिल्म "खून पसीना" का गीत है।

"मँहगाई डायन" तो बहुत कुछ खाये जात है। मँहगाई बढ़ती गयी और छोटे सिक्के का चलन बन्द होता गया। 1970 में 1,2और 3 पैसे के सिक्के का चलन बन्द हो गया और धीरे धीरे चवन्नी का मोल भी घटता गया। चवन्नी का मोल घटते ही "चवन्नी छाप व्यापारी", "चवन्नी छाप डाक्टर" आदि मुहाबरे चलन में आये जो क्रमशः छोटे छोटे व्यापारी और आर०एम०पी० डाक्टरों के लिए प्रयुक्त होने लगा।

और आज चवन्नी का इतना मोल घट गया "मंहगाई डायन" के कारण कि आज उसका का अतिम संस्कार है। चवन्नी ने मुद्रा विनिमय के साथ साथ समाज से बहुत ही रागात्मक सम्बन्ध बनाये रखा बहुत दिनों तक। भले आज से चौवन्नी का अंत हो जाय लेकिन ये मुहावरे, ये गीत बहुत दिनों तक चौवन्नी को जीवित रखेंगे। अतः मेरी विनम्र श्रद्धांजलि है चवन्नी को चौवानिया मुस्कान के साथ उसके इस शानदार अवसान पर।

Thursday, June 23, 2011

कांग्रेस की दिग्विजयी भाषा

पिछले दो आम चुनावों में लगातार कांग्रेस की मनमोहन सिंह जी के नेतृत्व में जोड़-तोड के सरकार क्या बन गयी, कांग्रेस के कई नेताओं को भ्रम हो गया है कि शायद उन्होंने सदा के लिए "दिग्विजय" कर लिया है और बहुतेरे ऐसे हैं जिनकी भाषा लगातार तल्ख होती जा रही है। जबकि हकीकत यह है कि अकेले कांग्रेस को तो अभी पूर्ण बहुमत है ही पिछली बार।

अपने छात्र जीवन को याद करता हूँ तो इमरजेन्सी से पहले भी कुछ महत्वपूर्ण कांग्रसियों की भाषा में भी
ऐसी ही तल्खी आ गयी थी। परिणाम कांग्रेसजनों के साथ साथ पूरे देश ने देखा। किसी को यह भी शिकायत हो सकती है कि मैं किसी से प्रभावित होकर किसी के "पक्ष" या "विपक्ष" में लिख रहा हूँ। एक सच्चा रचनाकार का नैतिक धर्म है कि सही और गलत दोनों को समय पर "आईना" दिखाये। सदा से मेरी यही कोशिश रही है और आगे भी रहेगी। अतः किसी तरह के पूर्वाग्रह से मुक्त है मेरा यह आलेख।

"विनाश काले विपरीत बुद्धि" वाली कहावत हम सभी जानते हैं और कई बार महसूसते भी हैं अपनी अपनी निजी जिन्दगी में भी। अलग अलग प्रसंग में दिए गए विगत कई दिनों के कांग्रेसी कथोपकथन की जब याद आती है तो कई बार सोचने के लिए विवश हो जाता हूँ कि कहीं यह सनातन कहावत फिर से "चरितार्थ" तो नहीं होने जा रही है इस सवा सौ बर्षीय कांग्रेस पार्टी के साथ?

लादेन की मृत्यु के बाद एक इन्टरव्यू में आदरणीय दिग्विजय सिंह जी का लादेन जैसे विश्व प्रसिद्ध आतंकवादी के प्रति "ओसामा जी" जैसे आदर सूचक सम्बोधन कई लोगों को बहुत अखरा और देश के कई महत्वपूर्ण लोगों ने अपनी नकारात्मक प्रतिक्रिया भी व्यक्त की उनके इस सम्बोधन पर। लेकिन इसके विपरीत मुझे कोई दुख नहीं हुआ। बल्कि खुशी हुई चलो आतंकवादी ही सही, लेकिन एक मृतात्मा के प्रति भारत में प्रत्यक्षतः सम्मान सूचक शब्दों के अभिव्यक्ति की जो परम्परा है, कम से कम उसका निर्वाह दिग्विजय जी ने तो किया?

मैं रहूँ न रहूँ, दिग्विजय जी रहें न रहें, लेकिन रामदेव बाबा ने जो काम "आम भारतवासी" के लिये किया है उसे यहाँ की जनता कभी नहीं भूल पायेगी। एक शब्द में कहें तो बाबा रामदेव अपने कृत्यों से आम भारतीयों के दिल में बस गए हैं। "योग द्वारा रोग मुक्ति", के साथ साथ जन-जागरण में उनकी भूमिका को नकारना मुश्किल होगा किसी के लिए भी। बाबा राम देव करोड़ों भारतीय समेत वैश्विक स्तर पर भी लोगों के दिलों पर स्वाभाविक रूप से आज राज करते हैं। ऐेसा सम्मान बिना कुछ "खास योगदान" के किसी को नहीं मिलता।

दिग्विजय उवाच - "रामदेव महाठग है, न तो कोई आयुर्वेद की डिग्री और न ही योग की और चले हैं लोगों को ठीक करने" इत्यादि अनेक "आर्ष-वचनों" द्वारा उन्होंने रामदेव जी के सतकृत्यों के प्रति अपना "भावोद्गार" प्रगट किया जिसे सारे देश ने सुना। यूँ तो उन्होंने बहुत कुछ कहा यदि सारी बातें लिखी जाय तो यह आलेख उसी से भर जाएगा क्योंकि उनके पास "नीति-वचनों" की कमी तो है नहीं और रामदेव के प्रति उनके हृदय में कब "बिशेष-प्रेम" छलक पड़े कौन जानता?

मैं कोई बाबा रामदेव का वकील नहीं हूँ। लेकिन उनके लिए या किसी भी राष्ट्रीय स्तर पर सम्मान प्राप्त व्यक्ति के प्रति ऐसे दुर्व्यवहार की कौन सराहना कर सकता है। रामदेव जी अपने आन्दोलन के क्रम में "अपरिपक्व निर्णय" ले सकते हैं, कुछ गलतियाँ उनसे हो सकतीं हैं लेकिन सिर्फ इस बात के लिए उनके जैसे "जन-प्रेमी" के खिलाफ इतना कठोर निर्णय वर्तमान सरकार के दिवालियेपन की ओर ही तो इशारा करता है। उस पर तुर्रा ये कि दिग्विजय जी को वाक्-युद्ध में "दिग्विजय" करने के लिए छोड़ दिया गया हो। अच्छा संकेत नहीं है। सरकारी महकमे सहित कांग्रेस के बुद्धिजीवियों को इस पर विचार करने की जरूरत है कम से कम भबिष्य में कांग्रेस के "राजनैतिक स्वास्थ्य" के लिए।

जहाँ तक मुझे पता है कि गुरूदेव टैगोर ने अपने पठन-पाठन का कार्य घर पर ही किया इसलिए उनके पास भी कोई खास "स्कूली डिग्री" नहीं थी। फिर भी उन्हें "नोबेल पुरस्कार" मिला। लेकिन ऊपर में वर्णित दिग्विजय जी की डिग्री वाली बात को आधार माना जाय तो गुरुदेव को विश्व समुदाय ने नोबेल पुरस्कार देकर जरूर "गलती" की? एक बिना डिग्री वाले आदमी को नोबेल पुरस्कार? लेकिन ये सच है जिसे पूरा विश्व जानता है। फिर रामदेव जी की "डिग्री" के लिए दिग्विजय जी को इतनी चिन्ता क्यों? जबकि आम भारतीयों ने उनके कार्यों सहर्ष स्वीकार किया है।

आदरणीय दिग्विजय जी भारतीय लोकतंत्र का सबसे बड़ा मंदिर है संसद और हमारे सैकड़ों सांसदों को "राष्ट्र-गान" तक पूरी तरह से नहीं आता है। तो क्या उन्हें सांसद नहीं माना जाय क्या? आप ही गहनता से विचार कर के बतायें, देशवासियों को उचित दिशा-निर्देश दें। और ऐसे ही हालात में मेरे जैसे कवि के कलम से ये पंक्तियाँ स्वतः निकलतीं हैं कि -

राष्ट्र-गान आये ना जिनको, वो संसद के पहरेदार।
भारतवासी अब तो चेतो, लोकतंत्र सचमुच बीमार।।

(नोट - पूरी रचना पढ़ने और सुनने का लिन्क क्रमशः http://manoramsuman।blogspot।com/2011/04/blog-post_29।html और http://www.youtube.com/watch?v=c4qhAKmfON0 है।}

"अन्ना" - आज एक नाम न होकर एक "संस्था" बन गए हैं अपनी निष्ठा और "जन-पक्षीय" कार्यों के कारण। अन्ना एक गाँधीवादी संत हैं सच्चे अर्थों में। उन्होंने भी जन-जागरण किया। आन्दोलन चलाया। लोकपाल पर पहले सरकारी सहमति बनी अब कुछ कारणों से असहमति भी सामने है। फिर अन्ना ने 16 अगस्त से अनशन और आन्दोलन की बात की। यह सब लोकतंत्र में चलता रहता है। सरकार में भी समझदार लोग हैं। जरूर इसका समाधान तलाशेगे, अन्ना से आगे भी बात करेंगे। अभी नहीं जब तक भारत में प्रजातंत्र है, ये सब चलता रहेगा। यह "लोकतंत्रीय स्वास्थ" के लिए महत्वपूर्ण भी है।

लेकिन दिग्विजय जी कैसे चुप रह सकते हैं? तुरत बयान आया उनकी तरफ से कि यदि अन्ना आन्दोलन करेंगे तो उनके साथ भी "वही" होगा जो रामदेव के साथ हुआ। क्या मतलब इसका? क्यों बार बार एक ही व्यक्ति इस तरह की बातें कर रहा है? क्यों ये इस तरह के फालतू और भड़काऊ बातों की लगातार उल्टी कर रहे हैं? कहाँ से इन्हें ताकत मिल रही है? कहीं दिग्विजय जी की "मानसिक स्थिति" को जाँच करवाने की जरूरत तो नहीं? मैं एक अदना सा कलम-घिस्सू क्या जानूँ इस "गूढ़ रहस्य" को लेकिन ये सवाल सिर्फ मेरे नहीं, आम लोगों के दिल में पनप रहे हैं जो आने वाले समय में ठीक नहीं होगा कांग्रेस के लिए। कांग्रेस में भी काफी समझदार लोग हैं। मेरा आशय सिर्फ "ध्यानाकर्षण" है वैसे कांग्रेसियों के लिए जो ऐसी बेतुकी बातों पर अंकुश लगा सकें।

करीब तीन दशक पहले मेरे मन भी संगीत सीखने की ललक जगी। कुछ प्रयास भी किया लेकिन वो शिक्षा पूरी नहीं कर पाया। उसी क्रम में अन्य रागों के अतिरिक्त मेरा परिचय "राग-दरबारी" से भी हुआ। यह "राग-दरबारी" जिन्दगी में भी बड़े काम की चीज है जिसे आजकल चलतऊ भाषा में अज्ञानी लोग "चमचागिरी" कहते हैं। यदि हम में से कोई इस राग के "मर्मज्ञ" हो जाए तो कोई भी "ऊँचाई" पाना नामुमकिन नहीं। आज के समय की नब्ज पकड़ कर ये बात आसानी से कोई भी कह सकता है।

प्रिय राहुल जी का 41वाँ जन्म दिवस आया और कांग्रेसजनों ने इसे पूरे देश में "हर्षोल्लास" से मनाया। किसी को क्या आपत्ति हो सकती है? और हर्षोल्लास से मनायें। लेकिन आदरणीय दिग्विजय जी भला चुप कैसे रह सकते? संसार का शायद ही कोई ऐसा बिषय हो जिसके वे "ज्ञाता" नहीं हैं। तपाक से राहुल जी की इसी साल शादी की चिन्ता के साथ साथ उन्हें "प्रधानमंत्री" के रूप में देखने की अपने "अन्तर्मन की ख्वाहिश" को भी सार्वजनिक करने में उन्होंने देरी नहीं दिखायी। क्या इसे राग-दरबारी कहना अनुचित होगा? अब जरा सोचिये वर्तमान प्रधानमंत्री की क्या मनःस्थिति होगी? वे क्या सोचते होंगे?

मजे की बात है कि दिग्विजय जी इतने पुराने कंग्रेसी हैं। मंत्री, मुख्यमंत्री बनने के साथ साथ लम्बा राजनैतिक अनुभव है उनके पास। उनके वनिस्पत राहुल तो कल के कांग्रेसी कार्यकर्ता हैं। लेकिन उन्हें अपनी "वरीयता" की फिक्र कहाँ? वे तो बस अपने "राग" को निरन्तर और निर्बाध गति से "दरबार" तक पहुँचाना चाहते हैं ताकि उनकी "दिग्विजयी-भाषा" पर कोई लगाम न लगा सके। काश! मैं भी "राग-दरबारी" सीखकर अपनी तीन दशक पुरानी गलती को सुधार पाता?

Tuesday, June 21, 2011

धर्म का बाजार या बाजार का धर्म

कई बर्षों का अभ्यास है कि प्रतिदिन सबेरे सबेरे उठकर कुछ पढ़ा लिखा जाययह समय मुझे सबसे शांत और महफूज लगता है इस दृष्टिकोण से। लेकिन जब भी कुछ पढ़ने लिखने के लिए तत्पर होता हूँ तो मुझे दो अलग अलग स्थितियों का सामना अक्सर और आवश्यक रूप से करना पड़ता हैं।
प्रथम - टी०वी० के कई चैनलों में धार्मिक प्रवचन सुनना जिसमें विभिन्न प्रकार के "धार्मिकता का चोला पहने" लोगों के "अस्वादिष्ट" प्रवचनों को सुनना शामिल है। इसके अतिरिक्त कसरत (योग भी कह सकते), हमेशा एक दूसरे के विपरीत भबिष्य फल बताने वाली "तीन देवियों" द्वारा राशिफल से लेकर शनि का भय दिखाते हुए लगभग "शनि" (मेरी कल्पना) जैसे ही डरावने वेश-भूषा धारण किए महात्मा की "संत-वाणी" भी सुननी पड़ती है, जिनके बारे में अभी तक यह नहीं समझ पाया हूँ कि वो कुछ समझा रहे हैं या धमकी दे रहे हैं। वो भी ऊँची आवाज में। अगर टी०वी० का "भोल्युम" कम करूँ तो सुमन (श्रीमती) जी कब "शनि-सा" व्यवहार करने लगे, अनुमान लगाना कठिन है।

और दूसरा - बाजार खुलते खुलते मुझे दुकान पर पहुँच जाना पड़ता है क्योंकि पहले से कोई न कोई काम मेरे लिए "गृह-स्वामिनी" द्वारा निर्धारित
कर दिया जाता है ताकि मैं लेखन जैसे "बेकार" काम से अधिक से अधिक दूर रह सकूँ। दुकान में भी पहुँते ही देखता हूँ कि सेठ जी "मुनाफा" कमाने से पूर्व भगवान को खुश करने लिए "निजी धार्मिक अनुष्ठान" में कुछ देर तल्लीन रहते हैं। निस्सहाय खड़ा होकर सारे कृत्यों को देखना मेरी मजबूरी है क्योंकि पूजा के बाद जबतक दुकान से कोई नगदी खरीदारी न हो, उधार वाले को प्रायः ऐसे ही खड़ा रहना पड़ता है। कभी कभी तो नगदी खरीददारी वाले ग्राहक का भी इन्तजार करना मेरी विवशता बन जाती है और आज मेरी यही विवशता मेरे इस लेख के लिए एक आधार भी है।

देश में कई प्रकार के उद्योग पहले से स्थापित हैं जो अपनी नियमित उत्पादकता के कारण हमारे देश की आर्थिक व्यवस्था की रीढ़ बने हुए है और जिसकी वजह से हमारी सुख-सुविधा एवं समृद्धि में लगातारिता बनी हुई है। हाल के कुछ बर्षों कई नए प्रकार के "अनुत्पादक उद्योगों" के नाम उभर कर बहुत तेजी और मजबूती से देशवासी के सामने आये हैं एवं जो लगातार समाज को बुरी तरह से खोखला कर रहा है। उदाहरण के लिए - अपहरण-उद्योग, नक्सल-उद्योग, राजनीति-उद्योग इत्यादि। इसी कड़ी में एक और उद्योग की ठोस और "सनातनी उपस्थिति" से इन्कार करना मुश्किल है और वो है "धर्म का उद्योग"

अभी तक जितने भी ज्ञात-अज्ञात मुनाफा कमाने के संसाधन और क्रिया-कलाप हैं उसमें धर्म सर्वोपरि है। साईं बाबा के साथ साथ कई कई बाबाओं के "बिना श्रम-अर्जित" सम्पत्तियों का मीडिया द्वारा उपलब्ध कराये गए ब्योरे के आधार पर यह कहना किसी के लिए भी कठिन नहीं है। इस उद्योग की बिशेषता यह है कि इसको स्थापित करने में कोई खास
प्रारम्भिक खर्च नहीं है - बस फायदा ही फायदा। केवल आपके वस्त्र "धार्मिकता" के आस पास दिखते हों। कभी कभी "लच्छेदार-भाषा" और लोक लुभावन "व्यावसायिक-मुस्कान" के साथ पाप-पुण्य का "भय" दिखाते हुए चुटकुलेबाजी करने का भी हुनर आप में होना चाहिए और इन सब के लिए कोई खास "पूँजी" की आवश्यकता तो पड़ती नहीं?

बाला जी का मंदिर हो या चिश्ती का दरगाह, आप जहाँ भी जाइये तो उस स्थल से बहुत पहले ही आपके आस-पास किसी न किसी तरह
कुछ "धार्मिक एजेन्टों" का अस्वाभाविक अवतार अनचाहे-रूप से स्वतः हो जाता है जो आपके पीछे हाथ धो कर पड़ जाते हैं और अपने को उस "सर्वशक्तिमान" का सच्चा दूत बताते हुए उनसे "डाइरेक्ट साक्षात्कार" या "पैरवी" कराने का वादा तब तक करते रहते हैं जब तक आप उसके "वश" में न हो जाएं या डाँट न पिलावें। फिर शुरु होता है पैसा ऐंठने का एक से एक "चतुराई भरा कुचक्र" जिससे निकलना एक साधारण आदमी के लिए मुशकिल ही होता है। सबेरे सबेरे भगवान की आराधना करने के बाद ये एजेन्ट भगवान के ही नाम पर खुलेआम "मुनाफा" कमाने के लिए कई प्रकार के जायज(?) नाजायज जुगत में तल्लीन हो जाते हैं जिसके शिकार अक्सर वे सीधे-सादे साधारण इन्सान होते हैं जो बड़ी कठिनाई से पैसे का जुगाड़ करके अपने आराध्य का दर्शन करने आते हैं।

और बाजार में क्या होता है? बिल्कुल यही दृश्य, यही कारोबार। सारे के सारे दुकानदार अपना दुकान खोलते ही अपने अपने आराध्य की आराधना करते हैं और फिर शुरू हो जाता है अधिक से अधिक मुनाफा कमाने का
कुचक्र। एक लक्ष्य मुनाफा बटोरना है चाहे जो करना पड़े। इनके भी मुख्य शिकार वही "आम आदमी" हैं जो अपनी दैनिक जरूरतों को पूरा करने के लिए बड़ी मुश्किल से बाजार का रूख कर पाते हैं वो भी सिर्फ जीने भर की जरूरतों के लिए।

कोई धर्म-सथल हो या बाजार, सब जगह की "नीति और रीति" एक है। यदि चलतऊ भाषा में कहा जाय तो अधिक से अधिक अपने ग्राहकों को "छीलना"। इसके लिए वे आमतौर पर वाकचातुर्यता की चासनी में लपेट कर झूठ और कई प्रकार के तिकड़म का सहारा लेते हैं। मजे की बात है कि दोनों (धर्म-स्थल और बाजार)जगहों में ये सारे फरेब भगवान की "आराधना" के बाद ही शुरू होता है मानो भगवान से "इजाजत" लेकर। और "बेचारे" भगवान का क्या दोष? वे तो पत्थर के हैं। क्या कर सकते हैं? सब चुपचाप देखते रहते हैं सारे अन्याय को। आखिर उन्हीं के "परमिशन" से तो शुरू किया जाता है यह कातिल खेल।

वैश्वीकरण के बाद अपने देश में बाजारवाद पर बहुत चर्चाएं हुईं। इसकी अच्छाई और बुराई पर भी। लेकिन मेरे जैसा मूरख यह अभी तक नहीं समझ पाया कि बाजार अपना धर्म निभा रहा है या धर्म ही एक बाजार बन गया है और हठात् ये पंक्तियाँ निकल आतीं हैं कि-

बाजार और प्रभु का दरबार एक जैसा
सब खेल मुनाफे का आराधना ये कैसी?

पूरी गज़ल का लिन्क ये http://manoramsuman.blogspot.com/2011/05/blog-post_09.html है

Saturday, June 18, 2011

आदमी या रोबोट

दुनिया भाग रही है। हम भी भाग रहे हैं लगातार इस भागती दुनिया के पीछे। क्यों भाग रहे हैं? किसके लिए भाग रहे हैं? कुछ भी ठीक ठीक पता नहीं? लेकिन सच यही है कि भाग रहे हैं। न सोने का वक्त और न ही हँसने का। धीरे धीरे आदमी और रोबोट के अन्तर को समझना मुश्किल हो रहा है।

मुस्कुराना, हँसना, दुखी होना, रोना, आदि कुछ क्रियाएं हैं जो आदमी को जानवर या आज कल की भाषा में "रोबोट" से अलग करता है। हम मुस्कुरा तो रहे हैं लेकिन मशीनी अंदाज में जैसे रिशेप्शन पर बैठी सुन्दर बालाएं मोहक अन्दाज में मुस्कातीं हैं किसी अतिथि के आगमन पर भले उस समय उसके पेट में "दर्द" ही क्यों न हो रहा हो?

एक दिन मैं अचानक खुद को याद करने लगा कि कितने दिन हो गए जो मैं ठहाका लगाकर हँस न सका? हो सके तो आप भी गौर से सोचियेगा। वैसे ठहाका लगाकर हँसना तथाकथित "सभ्य समाज" में अच्छा माना भी नहीं जाता है। यूँ भी सड़क से लेकर संसद तक "स्वाभाविक रूप से मुस्कुराते चेहरे" अब मिलते कहाँ हैं?


हम जरूरत के हिसाब से वक्त, बेवक्त रोते भी हैं या फिर रोने का अभिनय भी करते हैं। वैसे बिना परिस्थिति और भावनाओं के रूलाने का ठीका तो "फिल्मीस्तान" के पास है जिसमें "ग्लीसरीन" के महत्वपूर्ण योग दान को नकारा नहीं जा सकता। लेकिन इस रूदन में सम्वेदना कहाँ?

सम्वेदना लायी भी कहाँ से जाय? यह कोई आयात या निर्यात करने वाली वस्तु तो है नहीं जो "अनशन" करके सरकार पर दवाब बनाकर इसे मँगाया जा सके। सम्वेदना की उपज तो मानव हृदय से होती है, चिन्तन से और उसकी जीवंतता से भी।

लेकिन इस भौतिकता की अंधी दौड़ में, जहाँ "अर्थ" के अलावा किसी चीज की प्रधानता ही नहीं है जिसके चलते हमारा जीवन लगातार "अर्थ-हीन" होता जा रहा है। किसको फुर्सत है इधर झाँकने की भी। करोड़ों लोग अवसर और संसाधन के अभाव में भूखे मर रहे हैं और कई ऐसे हैं जो संसाधन की विपुलता के कारण खाते खाते बीमार हैं। बहुत बेढब, नीरस और बेढंगी होती जा रही है ये दुनिया। लेकिन "सब चलता है" के सूत्र वाक्य से सारी उपस्थित समस्याओं का "सामान्यीकरण" करने का खतरनाक खेल बदस्तूर जारी है और आगे भी इसके ठहराव के कोई आसार नजर नहीं आते। "भोगवादी संस्कृति" पता नही हम सबको किस ओर ले जा रही है?

दार्शनिक अन्दाज में बात करना इस भारत भूमि पर उपजे प्रायः सभी लोगों की स्वाभाविक प्रवृति है। चाहे जरूरतमन्द हो या सम्पन्न आदमी, दार्शनिक अंदाज में कहते हुए मिल जाते हैं - अरे यार "कल किसने देखा है? साँसें कब रुक जाय कौन जानता?" इत्यादि। लेकिन मजे की बात है कि उसी "भबिष्यत् कल" को और सम्पन्न बनाने में सभी दिन रात हलकान हैं और अपने वर्तमान को खराब करने में भी कोई कसर नहीं छोड़ते। एक दूसरे को कुचलने में भी नहीं हिचकते।

किसे खबर है अगले पल की
फिर भी सबको चिन्ता कल की

"छीन करके खाना हमारी प्रवृति है और बाँट करके खाना हमारी संस्कृति"। डार्विन के सिद्धान्त के हिसाब से आदमी का पूर्वज जानवर रहा है और जानवर छीन कर अपना हक हासिल करता है। क्या हम फिर घड़ी की सूई को उल्टी दिशा में तो नहीं घुमा रहे हैं? यदि नहीं तो हालात रोज रोज इतने बदतर क्यों? जहाँ आदमी को "आदमी" की तरह जीना भी मयस्सर नहीं हो रहा है।

आम जीवन में सुख-सुविधा अधिक से अधिक हो, इसके लिए लाखों लाख ईजाद हुए और हो भी रहे हैं। इसी कड़ी में आदमी ने "सुपर रोबोट" भी बनाया जिसे अब एक "अर्दली" की तरह बस "आर्डर" देने की जरूरत भर है और वो सारा काम कर देगा। प्रायः सब कुछ आदमी की तरह। लेकिन "भावना"? पूरी तरह से नदारद। कभी कभी सोचने को विवश हो जाता हूँ कि रोबोट बनाने तक की यात्रा करते करते कहीं आदमी खुद तो "रोबोट" नहीं बन गया? बहुत हद तक ये सच भी है और हम देख भी रहे हैं इसके प्रायोगिक प्रतिफलन को। जय-आर्यावर्त।

Friday, June 17, 2011

निगमानन्द : लक्ष्य मिला न ठाम

निगमानन्द जी बिना हो हल्ला के इस "असार" संसार को छोड़ कर चले गए और छोड़ गए गंगा को उसकी उसी पीड़ा के साथ जिसके लिए उन्होंने जान दिया। इसी के साथ उनके जननी और जनक की मानसिक छटपटाहट को भी समझने की जरूरत है। निगमानन्द कब अनशन पर बैठे? कब कोमा मे गए? प्रायः सभी अनजान। उसी अस्पताल में बाबा रामदेव के प्रति सारा देश चिन्तित लेकिन वहीं निगमानन्द के बारे में चर्चा तक नहीं। जबकि उनके भी अनशन का उद्येश्य "सार्वजनिक-हित" ही था, अन्ना और रामदेव की तरह। मीडिया की कृपा हुई और सारा देश निगमानन्द के मरने के बाद जान पाया इसकी पृष्ठभूमि और मरने के बाद का किचकिच भी।

निगमानन्द के माता पिता ने लाश पर दावेदारी की, जो बहुत हद तक स्वभाविक भी है। संतान को नौ महीने अपने कोख में रखकर उसे पालने की पीड़ा एक माँ से बेहतर कौन जाने? यूँ तो किसी के सन्तान की मौत किसी भी माँ बाप के लिए असहनीय है लेकिन इस असहनीय पीड़ा के बाद भी यदि उस मृत सन्तान की लाश भी न मिले तो उसकी पीड़ा को सहानुभूतिपूर्वक विचार किया जाना चाहिए

निगमानन्द मिथिला का बेटा था। जन्म से लेकर मृत्यु तक जितने भी संस्कार होते हैं और उससे जुड़े सारे धार्मिक कर्म-काण्ड का मिथिला में एक अलग महत्व है और इस दृष्टिकोण से सम्भवतः पूरे देश में सबसे अलग एवं अग्रणी। संस्कृत मे एक उक्ति भी है "धर्मस्य गुह्यं ज्ञेयो मिथिलायां व्यवहारतः"। लेकिन निगमानन्द के माता पिता को अपने पुत्र की ही लाश नहीं मिली सशक्त दावा पेश करने के बाद भी। स्थानीय प्रशासन ने भी मना कर दिया। हाँ इजाजत मिली भी तो शांति पूर्वक अंतिम संस्कार (भू-समाधि) देखने के लिए जो कि मिथिला की संस्कृति में किसी भी हाल में स्वीकार्य नहीं है कम से कम ब्राह्मण परिवार में।

जिस आश्रम में निगमानन्द रहते थे उसके प्रमुख शिवानन्द जी की "वाणी" सुनने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। वे एक पुरानी चिट्ठी को संदर्भित करते हुए बड़े ही तार्किक ठंग से फरमा रहे थे कि "एक सन्यासी का शव एक गृहस्थ को नहीं दिया जा सकता"। अन्ततोगत्वा नहीं ही दिया गया। सन्यासी का मोटा मोटी जो अर्थ जो आम जनों की भाषा में समझा जाता है वो यह कि जो व्यक्तिगत भौतिकता की मोह छोड़ कर "बहुजन हिताय बहुजन सुखाय" कार्य करे। आदरणीय शिवानन्द जी तो उस सन्यासियों के प्रमुख हैं। फिर एक "लाश" से उनका इतना जबरदस्त "मोह" कैसा? वो भी तो किसी माँ की सन्तान हैं। क्या माँ की ममता का कोई मोल नहीं? यदि हाँ तो फिर ऐसे "सन्यास" का क्या मोल? जब किसी साधु- सन्यासी का भरण-पोषण भी इस समाज की उत्पादकता पर किसी न किसी रूप में निर्भर है तो क्या उस सन्यासी का उस समाज के प्रति कोई जवाबदेही नहीं? सामाजिक सम्वेदना से कोई सरोकार नहीं?

हमारे देश में मुख्यतः दो प्रकार के महत्वपूर्ण मंदिर पाये जाते हैं - एक "आस्था" के तो दूसरा "न्याय" के। मजे की बात है कि इन दोनों मंदिरों में या इसके इर्द-गिर्द, अभीतक ज्ञात या अज्ञात जितने भी प्रकार के भ्रष्टाचार हैं, अनवरत होते हैं। क्या मजाल जो आप इनके खिलाफ आवाज उठा दें? यदि न्यायलय के खिलाफ बोले तो "न्यायिक अवमानना" का खतरा और यदि आस्था के खिलाफ बोले तो "धार्मिक गुंडई" का डर। अतः "प्रिय शिवानन्द" जी के बारे में इससे अधिक कहना खतरों से खेलने जैसा लगता है। पता नहीं किसकी "धार्मिक भावना" को चोट लग जाए? सम्वेदनाएं मरतीं जा रहीं हैं। प्रशासन के लोग की भी अपनी बेबसी है। उन्हें मंत्रियों से निर्देश मिलता है और मंत्री जी की आत्मा निरन्तर जातिगत या धार्मिक "वोट" के लिए लालायित रहती है। तो फिर वो ऐसा खतरा कभी मोल लेंगे क्या? प्रशासन ने भी माता-पिता की ममता को कुचल दिया अपने आदेश से।

अन्ततः निगमानन्द के अंतिम संस्कार में वही हुआ जो उनके कौलिक-संस्कार से भिन्न था। उनके माता पिता का हाल भगवान जाने। गंगा-प्रदूषण बदस्तूर जारी है। आगे भी जारी रहेगा चाहे निगमानन्दों की फौज ही क्यों न अनशन पर बैठ जाय और प्राण-दान भी क्यों न कर दे। अन्ना और रामदेव जी के जबरदस्त आन्दोलन और उसके हस्र से अनुमान लगाना कठिन नहीं है। न गंगा को प्रदूषण से मुक्ति मिली और यदि मिथिला के "व्यवहार" को मानें तो निगमानन्द को भी "मुक्ति" नहीं मिली। आखिर निगमानन्द को क्या मिला? "लक्ष्मी-पुत्रों" को अपने देश में हमेशा "बिशेष-दर्जा" प्राप्त रहा है और आगे भी रहेगा, चाहे गृहस्थ हो या सन्यासी! इसकी पुरजोर सम्भावना है। जय हो लक्ष्मी मैया की।

Tuesday, June 14, 2011

भ्रष्टाचारःदर्द कहाँ और दवा कहाँ?

पानी और प्रशासन का स्वाभाव एक सा है, जिसका प्रवाह हमेशा ऊपर से नीचे की ओर होता है। अन्ना के तथाकथित सफल अभियान के बाद आजकल भारत में आम पीड़ित लोगों के साथ साथ भ्रष्टाचारी भी "भ्रष्टाचार विरोधी आन्दोलन" में सक्रिय भूमिका अदा करते हुए दिखाई पड़ने लगे हैं। प्रत्यक्षतः आम लोगों का इससे जुड़ना सुखद तो लगता है लेकिन भ्रष्टाचारियों के जुड़ने से इसके विपरीत परिणाम की आशंका अधिक दिखाई देती है। डर यह है कि आजादी की तरह ही यह "भ्रष्टाचार विरोधी आन्दोलन" भी कहीं कालक्रम में घोर भ्रष्टाचारियों के हाथ की कठपुतली न बन जाय।

चलिए पहले भ्रष्टाचार शब्द और उसके वर्तमान निहितार्थ को समझने की कोशिश करते हैं। ऐसा 'आचार' जो आचरण सामाजिक और संवैधनिक रूप से सामान्य जन जीवन में सहज रूप से स्वीकार्य न हो, लगभग यही भ्रष्टाचार का अर्थ शाब्दिक रूप से किया जा सकता है। लेकिन आज जो भ्रष्टाचार का नया अर्थ भारतीय जन जीवन में आमतौर पर समझा जा रहा है उसकी सीमा मात्र "आर्थिक भ्रष्टाचार" तक सिमटती नजर आ रही है। जबकि भ्रष्टाचार का दायरा शाब्दिक रूप से जीवन के बहुत आयामों के नियमित आचरणों की ओर इशारा करता है। कभी कभी सोचता भी हूँ कि किसी शब्द के प्रचलित अर्थ क्या इसी तरह समय की जरूरत के हिसाब से अपना बिशेष अर्थ ग्रहण करते हैं? खैर-----

जब कोई चोर या कुकर्मी की पिटाई सरेआम होते रहती है तब एक सामान्य आदमी, जिसने आजतक एक चींटी भी नहीं मारी हो, वो भी उसपर दो हाथ चला देने में नहीं हिचकता। मेरे हिसाब से वहाँ एक मनोविज्ञान काम करता है। दरअसल वैसा व्यक्ति उस चोर को मारकर अपने भीतर के चोर को समझाता है या डराता है कि अगर वो भी ऐसा करेगा तो ऐसी ही सजा मिलेगी। अन्ना हजारे की भावना को प्रणाम करते हुए कहना चाहता हूँ कि उनके आन्दोलन के समय समग्र भारत में जो जन समर्थन मिला उसके पीछे कमोवेश इस मनोविज्ञान का प्रत्यक्ष या परोक्ष प्रभाव रहा है। इसलिए ऊपर में मैंने "तथाकथित सफलता" शब्द का प्रयोग किया है।

इसी साल पहली मई को मुझे "इन्डिया एगेन्स्ट करप्शन" के एक कार्यक्रम में बुलाया गया। मैंने मंच से एक सवाल स्वयं सहित जनता के सामने रखा कि समस्त भारत में स्थापित भ्रष्टाचार की इतनी शानदार और मजबूत इमारत बनाने में क्या हमने भी तो किसी न किसी प्रकार एक ईट जोड़ने का काम तो नहीं किया है? सब अपने अपने गिरेबां में सच्चाई से तो झाँकें? यदि सचमुच हम सब आत्म-मंथन करें तो इस धधकते प्रश्न का उत्तर आसानी से नहीं दिया जा सकता क्योंकि प्रायः हम सभी ने कहीं न कहीं किसी न किसी प्रकार जाने अनजाने भ्रष्टाचार को मजबूत करने में अपना योगदान दिया है तभी तो आज यह भस्मासुर बनकर हम सबको, हमारी संस्कृति को नष्ट करने को आतुर है।

लगभग पैंतीस बर्ष पूर्व गरीबी की कृपा से मात्र सोलह बर्ष की उम्र में जब रोजगार के लिए घर से भावुकता में रोते रोते निकल रहा था तो याद आती है गाँव के ही एक उम्रदराज इन्सान की जिन्होंने मेरे प्रणाम करने पर कहा "बेटा रोओ मत - जीभ और आचरण (आचरण के लिए जो शब्द उन्होंने ग्रामीण परिवेश में प्रयोग किया उसका जिक्र उचित नहीं लगता) ठीक रखना - सुख करोगे"। फिर याद आती है उसके करीब पंद्रह साल बाद की एक घटना जब मैं पुनः अपने गाँव गया हुआ था। वही गाँव करीब उन्हीं के उम्र के एक व्यक्ति ने पूछा - क्या नौकरी करते हो? मैंने कहा हाँ। फिर प्रति प्रश्न कि "ऊपरी आमदनी" है कि नहीं? मेरा उत्तर नहीं। तब क्या खाक नौकरी करते हो?

यह एक नितांत व्यक्तिगत अनुभूति की बात है लेकिन यह मात्र पंद्रह बरस के अन्दर सामूहिक सांस्कृतिक अवनयन की दिशा की ओर संकेत अवश्य करता है। ठीक उसी तरह जिस तरह एक चावल की जाँच के बाद भात बनने या न बनने के संकेत मिल जाते हैं। फिर सोचने को विवश हो जाता हूँ कि ऊपर वर्णित पंद्रह बरस के बाद भी तो धरती पर और बीस बरस गुजर गए हैं जिस अवधि में गंगा का कितना पानी बह गया होगा।

नेता हो या अफसर, ये भी इसी समाज के अंग हैं, हम लोगों के बीच से ही ये लोग निकलते हैं, जो अपने ऊँचे ओहदे और दबंगई से इस भयानक बीमारी भ्रष्टाचार के कारक बने हुए हैं और स्वभावतः पूरे देश की आँखों की आजकल किरकिरी भी। लेकिन हमें ही सोचना होगा कि आखिर इन लोगों का इस दिशा में प्रशिक्षण प्रारम्भ कहाँ से हुआ? यहीं से मेरा यह कवि मन यह कहने को विवश हो जाता है कि सारे शासन तंत्रों में लोकतंत्र बेहतर होते हुए भी हमारा लोकतंत्र आजकल बीमार हो गया है और यकायक ये पंक्तियाँ निकल पड़तीं हैं कि ---

वीर-शहीदों की आशाएँ, कहो आज क्या बच पाई?
बहुत कठिन है जीवन-पथ पर, धारण करना सच्चाई।
मन - दर्पण में अपना चेहरा, रोज आचरण भी देखो,
निश्चित धीरे-धीरे विकसित, होगी खुद की अच्छाई।।
तब दृढ़ता से हो पायेगा, सभी बुराई का प्रतिकार।
भारतवासी अब तो चेतो, लोकतंत्र सचमुच बीमार।।

कर्तव्यों का बोध नहीं है, बस माँगे अपना अधिकार।
सुमन सभी संकल्प करो कि, नहीं सहेंगे अत्याचार।।

पूरी रचना यहाँ है - http://manoramsuman.blogspot.com/2011/04/blog-post_29.html
यु ट्यूब पर
http://www.youtube.com/watch?v=c4qhAKmfON0

"योगासन" नहीं "वोटासन"

जब से कलम घिसने "सारी" - अब तो कहना होगा "की बोर्ड" घिसने का रोग लगा है, सबेरे बजे उठ जाता हूँ। ठीक उसी समय "पत्नी- कृपा" से वो चैनल खुल जाता है जहाँ रामदेव बाबा योगासन की बात पूरे जोश में बता रहे होते हैं। टी०वी० को "फुल वाल्यूम" के साथ खोला जाता है ताकि वो दूसर कमरे में भी काम करें तो उन्हें सुनने में कोई कठिनाई हो। आदरणीय रामदेव जी के प्रति उनकी असीम भक्ति मेरे परिचतों के बीच भी सर्वविदित है। मुझे भी लाचारी में सुनना ही पड़ता है क्योंकि "आई हैव नो अदर च्वाईश एट आल" वैसे मुझे भी बाबा रामदेव के प्रति कोई विकर्षण तो है नहीं

मेरी पत्नी बहुत पान खाती है और बाबाजी प्रतिदिन "विदाउट फेल" इन बुराईयों से कोसों दूर रहने की ताकीद करते रहते हैं। पत्नीकी "रामदेवीय भक्ति" से प्रभावित होकर बहुत विनम्रता मैंने उनसे पूछने का दुस्साहस किया कि जब बाबा पान, गुटखा आदि खाने से इतने जोर से मना करते हैं और आप इतने श्रद्धाभाव और प्रभावी (शोर करके) ढंग से उन्हेंरोज सुनतीं हैं, फिर ये पान क्यों खातीं हैं? मेरे सौभाग्य से उन्हें उस दिन गुस्सा नहीं आया और उनके पास कोई उचित जवाब भी नहीं था अपनी आदत की विवशता के अतिरक्त।

जिस तरह से एक चावल की जाँच से पूरी हाँडी में भात बनने या बनने का पता चल जाता है, ठीक उसी तर्ज पर मैं क्या कोई भी सोचने पर विवश हो जायेगा कि बाबा की सभाओं में उनकी बातों को समर्थन करने वाले क्या ऐसे ही लोग अधिक हैं? जो पान, गुटखा, शराब, खैनी, कोल्ड ड्रींक्स आदि छोड़ने की प्रतिदिन शपथ लेते हैं और योगासन करने के वादे के साथ हाथ उठाकर रामदेव जी के आह्वान का प्रत्यक्षतः समर्थन तो करते हैं पर व्यवहार में नहीं।

फिर याद आती है विगत दिनों भ्रष्टाचार उन्मूलन के लिए उनके द्वारा चलाए गए "भारत स्वाभिमान आन्दोलन"
के तहत उनके हुंकार की। वही भीड़ और वही समर्थन की जिसके दम पर उन्होंने रामलीला मैदान में अनशन के नाम पर हजारों की भीड़ इकट्ठा कर ली। फिर शासक वर्ग की मिमियाहट, बाद में रात को अचानक उसी शासकीय पक्ष के आक्रामक रूख की भी याद आती है जिसे "मीडिया" के सौजन्य से पूरे देश ने देखा और सुना।

लोगों
ने यह भी देखा सुना कि जो बाबा सबेरे में स्वयं
"राह कुर्बानियों की न वीरान हो - तुम सजाते ही रहना नये काफिले" जोर जोर से गा रहे थे, वही रात में जान बचाने के लिए एक बिशेष "रक्षा घेरा" बनबा कर मंच से कूदे और लोगों में "कूदासन" की होड़ लग गयी इसी क्रम में उन्हें "स्त्री-वस्त्र" तक भी धारण करना पड़ा देखते ही देखते "राह कुर्बानियों" की एकाएक वीरान हो गयी। खैर----

शासकीय पक्ष के व्यवहार के क्या कहने? दिन में "पुष्प" से स्वागत और रात में "कटार" से वार। वाह क्या सीन था? "क्षणे रूष्टा - क्षणे तुष्टा" क्या कहा जाय इस नाटकीय मोड़ को? शायद पाकिस्तानी तानाशाह भी इतनी जल्दी, वो भी एकदम विपरीत दिशा में, अपना विचार बदलने में शर्म महसूस करेंगे। एकाएक सत्ता पक्ष के लोगों को महाभारत के संजय की तरह
"दिव्य दृष्टि" मिली और बाबा रामदेव "आदरणीय" से "महाठग" के रूप में अवतरित हो गए। सत्ता पक्ष ने "दिग्विजयी मुद्रा" में इसकी घोषणा भी शुरू कर दी और यह क्रम अब भी चल ही रहा है। पता नहीं कब तक चलेगा?

चाहे अन्ना हजारे हों या बाबा रामदेव - दोनों ने देश की नब्ज को पहचाना और ज्वलन्त मुद्दे भी उठाये जिसका कुल लब्बोलुआब भ्रष्टाचार ही रहा। पता नहीं
"भ्रष्टाचार का मुद्दा" अब कहाँ चला गया? अब तो मुद्दा "सरकार बनाम रामदेव और अन्ना" के अहम् की टकराहट की ओर मुड़ गया है जो देश के स्वस्थ वातावरण के लिए किसी भी हालमें ठीक नहीं। गाँव की पान दुकान से लेकर दिल्ली तक जिसे देखो सब बहस में भिड़े हुए हैं। मजे की बात है कि सब भ्रष्टाचार के खिलाफ हैं मगर भ्रष्टाचार अंगद के पाँव की तरह अडिग है।

जहाँ तक मेरी व्यक्तिगत समझदारी है वर्तमान सरकार के वर्तमान रुख को मैं अंग्रेजी हुकूमत की
"फोटोकापी" से कम नहीं देख पाता। जब हालात ऐसे हैं तब क्या गाँधीवादी कदम और क्या आध्यामिक योगासन? क्या सरकार पर कोई असर पड़ेगा? "सत्ता सुन्दरी" की आगोश में जकड़े ये मदहोश लोग क्या जानेंगे आम आदमी की पीड़ा और विवशता? वैसे भी वातानुकूलित कमरे में दुख कम दिखाई पड़ते होंगे। तो फिर सवाल उठता है कि क्या यूँ ही चुप रहा जाय? नहीं बिल्कुल नहीं। ये अंग्रेज भी नहीं हैं जो इन्हें मार-पीट के भगाया जा सके। फिर उपाय क्या है?

योगासन की दिशा में बाबा रामदेव के द्वारा किये गए कार्य को देश कभी नहीं
भुला सकता। उन्होंने जन जागरणका जो काम किया है वह अतुलनीय है। लेकिन ये सत्ताधारी "गाँधीवाद" और "योग - आध्यात्म" की भाषा कहाँ समझ रहे हैं। ये तो सिर्फ "वोट" की भाषा समझते हैं और अन्ना और रामदेव के पास जबरदस्त जन-समर्थन भी है।

अतः बाबा जी आपने बहुत योगासन सिखाया और आगे भी सिखायें। लेकिन एक सलाह है कि उसके साथ साथ यहाँ की सीधी सादी जनता को
"वोटासन" के "रहस्य" और "उपयोगिता"भी उसी तरह से सिखायें जिस तरह से योग सिखा रहे हैं ताकि इन बेलगाम सत्ताधीशों के होश अगले चुनाव तक ठिकाने जाए। वैसे मुझे यह भी मालूम है बाबा - मेरे जैसे कम "घास-पानी" वाले लोगों की बात पर कौन तबज्जो देगा। जय-हिन्द।

Monday, June 13, 2011

अन्तर

एक दिन अचानक डोली और अर्थी की मुलाकात आमने सामने हो गयी। एक ओर से डोली में नयी दुल्हन सवार तो दूसरी ओर से किसी की अर्थी।

आमना सामना होने पर अर्थी ने डोली से पूछा - बहन क्या हाल चाल है? धीर धीरे बातचीत का क्रम आगे बढ़ा। कुछ ही देर में डोली अपने रूप-रंग पर इतराने लगी और जोश में कुछ कटु वचन बोल गयी। डोली के व्यर्थ के अभिमान से आहत अर्थी ने कहा इतना मत इतराओ बहन क्योंकि मुझ में और तुझ में कोई खास अन्तर तो है नही?

चार कंधे तुम्हें भी उठाकर चल रहे हैं और चार मुझे भी। फूल हम दोनों के आस पास बिखरे पड़े हैं। तेरे पीछे पीछे भी लोग रो रहे हैं और मेरे पीछे भी। तुम भी एक नयी दुनियाँ में जा रही हो और मैं भी। अन्तर तो बस इतना है कि तुम जहाँ जा रही हो मैं वहाँ से जा रही हूँ।

Saturday, June 11, 2011

विकास की गंगा

देश के किसी भाग में चुनाव की घोषणा हुई कि नहीं विभिन्न राजनैतिक दलों की प्रचार गाड़ियों के कानफोड़ूस्पीकर से एक ही आवाज आती है - हमारी पार्टी को वोट दो - हम "विकास की गंगा" बहा देंगे। यह दीगर बात है किगंगा को स्वच्छ करने की योजना ज्यों की त्यों पड़ी है लेकिन इस योजना के नाम पर कितनो की "व्यक्तिगतविकास" की गंगा निरंतर चमक रही है। झारखणड सरकार की सुल्तानगंज से "उत्तरवाहिनी गंगा" को देवघर केशिवगंगा" में नहर द्वारा मिलाने की बहुमुखी योजना बर्षों से फाइल के नीचे जस की तस पड़ी है। लेकिन पंचायतसे लेकर संसद तक किसी किसी "चुनावी" विकास की गंगा देश में हर समय बहती रहती है।


जीवनदायिनी "भागीरथी" को तो हम बचा ही नहीं पा रहे हैं और चले विकास की गंगा बहाने। बकौल राज कपूरराम की गंगा" तो कब की मैली हो चुकी है इन "पापियों" के पाप धोते धोते। उसके बाद से गंगा की गन्दगी औरबढ़ी है। किसे फिक्र है? लेकिन ये "जननायक" विकास की गंगा बहाये बिना थोड़े ही मानेंगे? क्योंकि इसी विकासकी गंगा में तो लगातार हाथ धोने की तैयारी में प्रतीक्षारत हैं ये लोग ताकि खुद का विकास लगातार होता रहे। भलेआम लोग आंसुओं की गंगा में डूब क्यों जाय।

हाँ गंगा नये नये रूपों में संशोधित और परिवर्द्धित होकर निकली है अपने देश में। भ्रष्टाचार की गंगा, घोटालों कीगंगा, नक्सलवाद की गंगा आदि आदि। मजे की बात है कि "ओरिजिनल" गंगा सिकुड़ती जा रही है और शेष मेंनिरन्तर विकास हो रहा है। शायद इसी को विकास की गंगा कहते हैं क्या?

विश्वास नहीं तो मधु कोड़ा जी के कारनामे को लीजिये। कमाल कर दिया उन्होंने। पूर्व के जितने भी घोटालेबाज हैं, सभी सकते में हैं कि "गुरू गुड़ और चेला चीनी" हो भी क्यों नहीं जिस "कोड़ा" में "मधु" लगा हो, वह कोड़ा तोआखिर अपना कमाल किसी किसी रूप में दिखायगा ही। अब तो "राजा जी" के कारनामे से मधु कोड़ा जी को भीशर्म" आती होगी क्योंकि इनके कारनामे तो गिनीज बुक में जाने योग्य है।

मधु कोड़ा जी ने कमाल दिखाया और पूछताछ के समय "महाजनो येन गतः पन्थाः" की तर्ज पर घोटालेबाजपूर्वजों" की तरह पहले तो बीमार पड़े फिर कह दिया कि सारे आरोप मेरे "स्वच्छ" छवि" को दागदार करने केलिए गढ़े जा रहे हैं। अब लीजिए - क्या कर लीजियेगा? इससे पहले किसी को कुछ हुआ क्या? फिर वही नेता, वहीमंत्री, वही सब कुछ। "राजा जी" और उनके जैसे कई "स्वनाम धन्य
" " " " " यशस्वी लोग अभी तिहाड़ जेल की शोभा में चार चाँद लगा रहे हैं हाँ एक बात तो हुई कि इसी बीच आम जनता के "आँसुओं की गंगा" में निरन्तर विस्तार हुआहै। परिणामस्वरूप अन्ना जी और रामदेव जी को बहुत पापड़ बेलने पड़ रहे हैं।

अब धीरे धीरे राज खुल रहे हैं और क्या क्या खुलेंगे पता नहीं? लेकिन आगे जो भी खुलेंगे और अधिक चौकाने वालेहोंगे। अखबार और न्यूज चैनलों को नया नया मसाला मिल रहा है और लगातार मिलते रहने की सम्भावनासुनिश्चित है और उनके "समाचारों की गंगा" मस्त और विकसित होकर बह रही है। दिन बदल बदल कर ये लोगघोटालेबाजों के पक्ष और विपक्ष में अपनी बात को सनसनीखेज ढ़ंग से रख रहे हैं, ताकि "टी० आर० पी० की गंगा" अधिक से अधिक बहे और "विज्ञापन की गंगा" सिर्फ उसी की न्यूज एजेंसी की तरफ आकर्षित हो। आखिर भाईसबको रोजगार चाहिए कि नहीं?

लोकतंत्र की परिभाषा को यदि आज संक्षिप्त रूप में कहा जाय तो उसे "जुगाड़ तंत्र" कह सकते हैं। कहना भीचाहिए। जो जितना जुगाड़ू है "विकास की गंगा" उसके तरफ उतना ही आकर्षित होती है। जुगाड़ तंत्र के लिएअनिवार्य शर्त है कि चाहे जिस तरह से हो, "धन की गंगा" बहती रहे, वो भी स्वस्थ और विकसित होकर। अब यहीहोगा, धन की गंगा बहेगी, जाँच का कोई परिणाम नहीं निकलेगा, जनता की स्मृति तो कमजोर होती ही है भूख औरबेबसी के कारण। सब इतिहास के काले पन्नों मे दफ्न।

घोटाले के जाँच हित बनते हैं आयोग।
सच होगा कब सामने वैसा कहाँ सुयोग।।

Friday, June 10, 2011

जगत-गुरु इन्डिया

बचपन से ही सुनते पढ़ते आया हूँ कि भारत "जगत-गुरु" है। सभ्यता, संसकृति, ज्ञान, विज्ञान के प्रकाश वितरणके साथ साथ गणित के शून्य से लेकर नौ तक के अंकों का जन्मदाता भारत ही तो है। कमोवेश यही स्थिति आजकल भी है। हमें आज भी "जगत-गुरु" होने का गौरव है। मेरी बातों से आप सहमत हो सकते हैं, असहमत हो सकते हैं, आश्चर्यचकित हो सकते हैं। आपका असहमत और आश्चर्यचकित होना एकदम लाजिमी है, क्योंकि आप देख रहे हैं कि विगत दशकों में पश्चिमी देशों, खासकर अमेरिका के पीछे पीछे लगातार चलने वाला भारत, भला जगत-गुरु कैसे हो सकता है? जबकि हमारे अन्दरूनी फैसले भी "व्हाइट हाऊस" के फैसले से निरन्तर प्रभावित हो रहे हैं। लेकिन आपके आश्चर्य करने से क्या होगा? सच्चाई तो आखिर सच्चाई है। सोलह आने चौबीस कैरेट सच यही है कि हम "जगत-गुरु" थे, हैं और आगे भी रहेंगे। यकीन नहीं आता तो इसके समर्थन में नीचे कुछ दमदार तर्क दिये जा रहे हैं। उसे देखें और यकीन करने को विवश हो जायें।

सबसे पहले व्याकरण के उस नियम के बारे में बात करें जिसमें कहा गया है कि व्यक्तिवाचक संज्ञा का अनुवाद नहीं होता। सच भी है व्यक्ति, स्थान, देश आदि का नाम अन्य भाषाओं में भी ज्यों का त्यों लिखा जाता है। लेकिन भारत का अनुवाद "इन्डिया" किया जाता है। दुनिया के किसी भी देश को यह गौरव प्राप्त है क्या? शायद नहीं। यहाँ तक कि हमारे संविधान की शुरुआत ही "भारत दैट इज इन्डिया---------" से होती है। ऐसा लिखने के पीछे भी भारतीयों का अपना मनोविज्ञान है। अपने पूर्व के शासक के प्रति आज भी हमलोग काफी श्रद्धावान हैं और उनके सम्मान में कोई कमी नहीं आने देना चाहते हैं। प्रमाण स्वरूप देख लें आजादी हासिल करने के दशकों बाद भी हम "भारत" से अधिक "इन्डिया" को मान देते हैं। है एक अनोखी बात? जो हमें सबसे अलग करता है?

दयालुता हमारी पूँजी है। हम दूसरे के दुख को देखकर अपना दुख भूल जाते हैं। अब देखिये पिछले दशक में विश्व के कई भागों सहित भारत, सॅारी, इन्डिया में भी खतरनाक आतंकवादी हमले हुए। यहाँ तक कि भारतीय संसद, विधान सभाओं सहित मुम्बई का ताज होटल काण्ड भी हुआ। सारा देश दहल गया। लेकिन हमारे बुद्धजीवियों, मीडिया कर्मियों सहित देश की जनता को भी ११ सितम्बर २००१ को अमेरीकी "वर्ड ट्रेड सेंटर" पर हुए आतंकवादी हमले की तकलीफ अधिक है वनिस्पत अपने देश में हुए खतरनाक हमलों के। अपने देश पर हुए आतंकी कार्यवाही को भूलकर हमलोग "वर्ड ट्रेड सेंटर" हुए हमले की "बरसी" को हर साल श्रद्धा पूर्वक याद करते हैं। विश्व में शायद हीइस तरह का कोई दूसरा उदाहरण हो? एक बिशिष्टता और हुई हमारी "जगत-गुरु" होने की।

"अतिथि देवो भव" का सिद्धान्त हमारी संस्कृति का मूल है। विदेशों में जाने के लिए सुरक्षा जाँच के नाम पर हमारे रक्षा मंत्री तक के कपड़े क्यों उतरवा लिए जाएँ, लेकिन अमेरिकन राष्ट्रपति बुश के आगमन के पूर्व ही उनके "कुत्ते" तक के लिए भारत में "फाइव स्टार" होटल
" के कमरे आरक्षित करा दिये जाते हैं। है इस तरह की कोई मिसाल विश्व में? उसपर मान आदर इतना कि उन कुत्तों को राजघाट में राष्ट्रपिता गाँधी की समाधि तक घूमने की छूट दे दी जाती है। अभी आदरणीय "कसाब जी" की शासकीय तामीरदारी के बारे में तो हम सभी जान ही रहे हैं हमारा यही "आतिथ्य भाव" विश्व में हमें सर्वश्रेष्ठ बनाता है।

हमारी सहनशीलता के क्या कहने? हमारा पड़ोसी मुल्क, जिसे अगर भारत ठीक से देख भी दे तो मुश्किल में पड़ जाता है, हमें कई तरह से परेशान किये हुए है। हम कई बार "आर-पार की लड़ाई" की की बात भी कर चुके हैं, सीमा पर सेना भेजकर भी लड़ाई नहीं किए और तबतक नहीं करेंगे जबतक "व्हाइट हाऊस" से ग्रीन सिग्नल नहीं मिलेगा।सहनशीलता की यह पराकाष्ठा है जो अन्यत्र शायद ही देखने को मिले। अतः इस "इन्डिया" की एक और बिशेषता मानी जानी चाहिए।

संसद, शासन का बड़ा और विधान सभा छोटा मंदिर माना जाता है। इन मंदिरों के संचालन के लिए हमलोगों ने "वोट" देकर कुछ ऐसी बिशिष्ट आत्माओं को भेज दिया है जिनका हाल ही में "अपराधी" से "नेता" के रूप में "रासायनिक परिवर्तन" हुआ है। मजे की बात है कि कल तक देश की पुलिस जिन्हें गिरफ्तार करने के लिए भटक रही थी, आज वही पुलिस उन्हें "सुरक्षा" प्रदान करने को भटक रही है। इन्डिया की इस बिशेषता पर कौन मर जाय?

इसके अतिरिक्त और भी कई ऐसी बिशिष्टताओं से भरपूर इस इन्डिया के शान में और बहुत कुछ जोड़ा जा सकता है, लेकिन कथ्य के लम्बा होने के डर से विराम दे रहा हूँ। कोई शंका होने पर उसकी भी चर्चा भबिष्य में करूँगा।लेकिन आप मान लें कि आज भी इन्डिया "जगत-गुरु" है, पहले भी था और निरन्तर उन्नति को देखते हुए आगे की संभावना बरकरार है
क्योंकि कल की ही तो बात है जब हमारे शासकों ने एक संत को सबक सिखाया और हजारों सोये निहत्थे अनशनकारियों के प्रति रामलीला मैदान में पुलिसिया "दयालुता" दिखाने में जो भूमिका निभायी है वह विश्व में सबके लिए अनुकरणीय है और अन्त में-

जगत-गुरु इन्डिया है अबतक बदले चाहे रूप हजार।
ज्ञान योग सिखलाया पहले आज मंत्र है भ्रष्टाचार।।