Wednesday, May 14, 2025

मीडिया और हमलोग

आतंकियों ने हँसते खेलते निर्दोष लोगों का जो नरसंहार किया है उससे पूरा देश आहत और स्तब्ध है। मृतकों के प्रति विनम्र श्रद्धांजलि अर्पित है और घायल लोगों के शीघ्र स्वस्थ होने की प्रार्थना। ईश्वर मृतकों के परिजनों को दुख सहने की शक्ति प्रदान करें।

विभिन्न मीडिया श्रोतों से प्राप्त जानकरियों के अनुसार इस दुखद घटना के तार धीरे-धीरे खुल रहे हैं। भारत सरकार इस दिशा में सतर्कता से सक्रिय भी है जिसे तमाम विपक्षी दलों के साथ-साथ देश के आवाम का भी समर्थन प्राप्त है। सरकार ने सर्वदलीय बैठक भी आहूत किया है।

फ्रंट लाईन मीडीया में यह बात भी सामने आई है कि आतंकियों ने धर्म पूछकर लोगों की हत्या की, कलमा नहीं पढ़ने पर भी गोली मारी गई। इसकी जितनी भी निन्दा की जाय वो कम है। लेकिन हमें आतंकवादियों के आका हमारे पड़ोसी देश की चाल को भी समझने की जरूरत है। वो तो चाहता ही है कि सामाजिक सद्भाव से बढ़ते हुए भारत में धार्मिक नफरत फैले और देश में अराजक स्थिति पैदा हो।

हमारे देश में मीडिया के तंत्र की पहुँच सुदूर गाँव तक भी है। मीडिया का आज यह नैतिक दायित्व है कि आतंकी और उसके आका देश की गंदी नीयत और साजिश को जन-जन तक पहुँचाए ताकि हमारे देशवासियों में कोई नफरती माहौल न पनपे और हम डटकर ऐसे कुकृत्यों का जवाब दे सकें। 

यह किसी व्यक्ति, किसी धर्म, किसी राज्य का मामला नहीं बल्कि यह हमारे देश के मर्म पर हमला हुआ है जिसे हम सबको समझना ही होगा। जैसे आज सरकार के साथ पूरा देश खड़ा है वैसे ही मेन मीडिया सहित अन्य तमाम मीडिया का स्वर एक होने की जरूरत है। मीडिया को अपनी असीम शक्ति का उपयोग देश में शाँति सद्भाव के लिए, आतंकियों के इरादे को बेनकाब करने के उद्देश्य से ही करना चाहिए वरना दुश्मन देश अपने इरादे में सफल हो जाएंगे।

सबको सन्मति दे भगवान!

कीचड़ से कीचड़ साफ करना?

जम्मू-कश्मीर में देशी / विदेशी पर्यटकों के साथ 22 अप्रैल 2025 को आतंकियों ने जो नृशंसता की है उससे पूरा देश आहत है। मैं स्वयं मानसिक रूप से बहुत ही परेशान हूँ खबर सुनने के बाद। हताहत लोगों और उनके परिजनों के प्रति हार्दिक सम्वेदना है मन में। ईश्वर उन्हें सहने की शक्ति दें।

ऐसे करोड़ों सम्वेदनाओं से भरे संदेश देश / विदेश से आ रहे हैं, आएंगे भी, सरकार की कड़ी कार्रवाई की चेतावनी भरे वक्तव्य भी आएँगे। फिर अगले दिन अलग-अलग मुद्दों पर चर्चे और बहस। फिर कौन इस ओर मुड़ के देखता है? यदि देश के नागरिक / पत्रकार इस ओर पलट के देखते तो सालों पहले घटित पुलवामा जैसी अनेक दुर्दांत घटनाओं का सच आज तक आ गया होता देश के सामने। 

सरकारी दावों में नोट-बंदी से आतंकवाद की कमर तोड़ने का आश्वासन मिला था और धारा 370 में परिवर्तन के बाद भी कुछ इसी प्रकार के सरकारी दावे देश की जनता के सामने आए पर इसकी परिणति पहलगाम जैसी हृदय विदारक घटना के रूप में सामने आयी। लेकिन इस सवाल को मजबूती से उठाने वाले सजग नागरिकों / पत्रकारों को बहुत कुछ भुगतने पड़ सकते हैं क्योंकि हाल के कुछ सालों इसी तरह का चलन स्पष्ट दृष्टिगोचर हो रहा है। 

कुछ संगठनों द्वारा धर्म के नाम पर अनवरत जो नफरत की आग लगाई जा रही है उससे देश में क्या कभी सौहार्द का वातावरण पनपेगा? सोचिएगा मेरे मित्रों / देशवासियों! आग का खेल बहुत खतरनाक होता है और कीचड़ से कीचड़ को साफ करने की हर कोशिशों पर पूर्ण विराम लगना आवश्यक है वरना देश का अत्यधिक नुकसान हो जाएगा।

सभी हताहतों के प्रति विनम्र श्रद्धांजलि अर्पित करते हुए कबीर के निम्न दोहा के साथ आज अंत करूँ कि -

करै बुराई सुख चहै, कैसे पावे कोय।
रोपै पेड़ बबूल का, आम कहां ते होय।।

एक बोध-कथा

एक गड़ेरिया के पास बहुत सारी भेंड़ें थी जिसकी देखरेख में वह दिन-रात लगा रहता था क्योंकि वही उसके जीने का एकमात्र सहारा था। भेड़ों की संख्या अधिक होने के कारण झुण्ड को सम्भालना जब कठिन होने लगा तो उसने एक तरकीब निकाली। 

एक दिन सभी भेड़ों को इकट्ठा करके गड़ेरिया ने कहा कि लोग तुझे भले भेंड़ कहा करते हैं लेकिन हकीकत में तुम सबके सब शेर हो। तुझे किसी से भला क्यूँ डरना? तुम्हारा कौन क्या बिगाड़ सकता है? धीरे-धीरे गड़ेरिया की अनेक कोशिशों और लच्छेदार भाषण से सभी भेंड़ों को यह विश्वास हो गया कि वह सचमुच शेर ही है। 

अपनी जरूरत के हिसाब से गड़ेरिया भेंड़ को जब जब काटता था तो भेड़ों की आँखों में आश्चर्यमिश्रित सवाल के भाव उपजते देखकर गड़ेरिया ने अपने वाक्-चातुर्य से झुण्ड को यह समझाने में सफल हुआ कि जिसे काटा गया सिर्फ वही एक भेंड़ बाकी जो भी हैं सबके सब शेर हैं। 

यह सुनकर भेंड़ों की भीड़ को संतोष हुआ और उनके बीच खुशी की लहर दौड़ गयी। 

गिलहरी-सहयोग

औरंगजेब पर देश भर में आजकल हो रही बहस से पता नहीं किसकी किसकी "जेब" भर रही हैं और किसकी खाली? लगभग पचास सालों तक भारत का ये बादशाह तो सदियों पहले दुनिया छोड़कर चला गया! लेकिन उसी पर दिन रात जोरदार चर्चा करके हम अपने देश की मँहगाई, बेरोजगारी, भ्रष्टाचार आदि किस ज्वलंत समस्या का समाधान करने में कैसे सफल होंगे? पता नहीं!

कभी लिखा था कि "दल बदला, शासक भी बदले, मगर तंत्र का हाल वही" इस कठोर सच्चाई से इन्कार करना मुश्किल है। सियासी चक्रव्यूह में फंसकर अधिकांश लोगों ने खुद को वैचारिक रूप सै "कद्दू" बना लिया है और नेतागण तो पहले से "चाकू' हैं ही। नुकसान स्वाभाविक रूप से हर हाल में कद्दू को ही उठाना पड़ता है और आम नागरिक उठा भी रहे हैं।

मानव-धर्म से ऊपर कोई धर्म नहीं है क्योंकि मानव-धर्म की सीमा के भीतर ही दुनिया के सभी धर्म समा जाते हैं। मनुष्यता की रक्षा के लिए परस्पर आपसी सहयोग से प्रेमपूर्ण जीवन जीना ही मानव धर्म है और सभी धर्मों के मूल स्वर में भी यही बात है तो फिर अपने-अपने तथाकथित धर्मों के लिए इतनी हाय-तौबा और मार-काट क्यों? सनद रहे कि दुनिया के आजतक के इतिहास में सारे युद्धों में जितने लोग मरे हैं उससे कई गुणा अधिक लोग विभिन्न धर्मों के नाम पर मारे गए हैं और मारे जा भी रहे हैं।

किसी बात को हम आप जब "मानने" लगते हैं तो वहाँ से उसे "जानने" की प्रक्रिया या तो थम जाती है या फिर धीमी पड़ जाती है। यही कारण है कि मैंने जीवन भर "व्यक्ति-पूजा" से खुद को दूर रखा। लेकिन धर्म की अफीम चाटने के बाद अपने समाज में व्यक्ति-पूजकों की संख्या बढ़ी है। अपने स्कूली दिनों में एक बुजुर्ग के मुँह से अचानक सुना था कि "सबसे बड़ो समाज" और आजतक इसी विचार की प्रधानता रही है मेरे जीवन में और आगे भी रहेगी।

राम-सेतु बनाते समय "गिलहरी-सहयोग" की चर्चा खूब होती है या फिर जंगल में आग लगने पर एक चिड़िया द्वारा चोंच में पानी भर भरकर आग बुझाने की चेष्टा की चर्चा भी हमलोग करते रहते हैं। यही कारण है कि कलमकारों के लिए पूर्व से स्थापित कर्तव्य "जनपक्षधरता" की रक्षा के लिए अडिग रहना मेरा स्वभाव बन गया है और मैं हर कालखण्ड की शासन व्यवस्था के खिलाफ दिखाई पड़ने लगता हूँ जिसे आजकल देशद्रोही / गद्दार आदि विशेष विशेषणों से विभूषित करने का रिवाज बनता जा रहा है।

सच्चा कलमकार किसी का विरोधी नहीं होता बल्कि वो हर हाल में जनपक्षीय होता है। उदाहरण के लिए अगर मुझे "फूलों" से प्यार है तो इसका कत्तई यह अर्थ नहीं है कि मुझे "डाली-पत्तियों" से नफरत है! कलमकार के दिल में सिर्फ प्रेम रचता बसता है मानवता के लिए और वहाँ नफरत का कोई स्थान भला कैसे हो सकता?

मेरी तरह करोड़ों-करोड़ लोग मानवीय-मूल्यों की रक्षा के लिए अपने अपने स्तर से सदा क्रियाशील हैं और आगे भी रहेंगे और विरोध के स्वर उठते ही रहेंगे। मैं बखूबी जानता हूँ कि मुझे बहुत कम ही लोग पढ़ते और सुनते हैं लेकिन मुझे यह संतोष भी है कि भविष्य में जब कभी भी इस कालखण्ड का मूल्यांकन होगा तो लोग यह नहीं कह पाएंगे कि हमने कभी भी अपनी क्षमता का उपयोग मानवीय-मूल्यों / मानव-धर्म की रक्षा के लिए नहीं किया। 

जय हिन्द। 

Thursday, February 27, 2025

अरण्य-रोदन

जाने-अनजाने हम सब कहीं न कहीं या तो किसी न किसी खास दल के समर्थक बने हुए हैं या फिर किसी मज़हब के। ऐसा लगता है कि देश के सियासी चक्रव्यूह में उलझकर हम सब एक सम्वेदनशील इन्सान के बदले सियासी दलों के लिए इस्तेमाल की एक वस्तु बनकर रह गए हैं। 

शायद हम यह भूल गए हैं कि मानवता / मानव-धर्म /इन्सानियत हर धर्म, हर मजहब, हर दल से ऊपर है। बहुत ही खतरनाक वातावरण तैयार हो गया है हमारे आसपास जिसे हम या तो मदहोशी में देख नहीं पा रहे हैं या फिर "शुतुरमुर्ग" की तरह अपना सर छुपाने की कोशिश में हैं। क्या इससे आसन्न सामाजिक संकट टल जाएगाॽ

सोशल मीडिया पर एक से एक ज्ञानी उपस्थित हो गए हैं जिनकी भाषा अप्रत्याशित रूप से तल्ख है। किसी भी विषय पर सभ्य भाषा में तार्किक / सांकेतिक रूप से अपनी अभिव्यक्ति न देकर आपस में गाली-गलौज की भाषा आम हो गई है। बहुत पीड़ा होती है जब आज की पीढ़ी को इस तरह से "भाषाई-बम" के रूप में प्रयोग होते देखता हूँ क्योंकि ये "भाषाई-बम" तो परमाणु बम से भी खौफनाक और विनाशकारी है।

राष्ट्रवादी, गद्दार, सेक्यूलर, पाखण्डी आदि अनेक नकारात्मक संकेत के सर्टिफिकेट बहुत आसानी से दिए जाने का चलन-सा हो गया है। मजे की बात है कि तथाकथित राष्ट्रवादियों और धर्म-निरपेक्षता वादियों से क्रमशः "राष्ट्र" और "धर्म" की परिभाषा पूछने पर अक्सर वे बंगले झाँकने लगते हैं लेकिन अपना-अपना अनर्गल राग नहीं छोड़ते। मानो वो एक निर्जीव मशीन सा अपने आका के संकेत का इन्तजार कर रहे हों। इस अर्जित लोकतंत्र में अचानक "नागरिक" का "प्रजा" में रूपांतरण जोर शोर से होने लगा है।

रंगों का लोकप्रिय त्योहार होली सामने है। अनेक बार कई जगहों पर रंगों की होली के आसपास देश ने पहले खून की होली का दंश झेला है। भगवान करे इस साल और आगे भी सब शुभ-शुभ हो। लेकिन पता नहीं क्यों आमलोगों में स्वाभाविक रूप से अपने वर्तमान के साथ साथ अपने भविष्य और अगली पीढ़ी के भविष्य के प्रति आंतरिक स्तब्धता है, लोग खौफ में हैं कि आगे और क्या क्या होगाॽ आशंकित मन से हमारी सामूहिक प्रगति संभव नहीं।

दशकों से एक साहित्य-सेवी के रूप में यथासंभव क्रियाशील रहा हूँ, सौभाग्य से बड़े-बड़े स्थापित साहित्यकारों का सान्निध्य / स्नेहाशीष प्राप्त हुआ। होली के इस मौसम में अक्सर प्रेम / श्रृंगार की कविता लिखने का चलन पुराने काल से रहा है। इस वासंतिक वातावरण में मैं भी इसी परम्परा का हिस्सा बनकर प्रेम / मनुहार के गीत लिखा करता था लेकिन अब ऐसा नहीं कर पा रहा हूं क्योंकि "शमशान में शहनाई वादन" उचित नहीं माना जाता। खैर---

                 "सबको सन्मति दे भगवान"
सादर
श्यामल सुमन

Tuesday, September 19, 2023

जिन्दा लाशों की बस्ती से

जो प्राकृतिक रूप से गूंगे हैं, उनकी भावनात्मक अभिव्यक्ति की विवशता को आसानी से समझा जा सकता है। वे अपने दैहिक या प्राकृतिक कारणों से अगर कुछ नहीं व्यक्त कर पाते हैं तो उन्हें दोष नहीं दिया जा सकता।

लेकिन अभी सत्ता पर काबिज रहने के उद्देश्य से लगातार चली जा रही सियासी चाल में पहले आमजनों को वैचारिक रूप से अंधा बनाये की कोशिश हो रही है ताकि सरकारी लालच अथवा भय दिखलाकर उन्हें धीरे धीरे गूंगा बनाने में भी आसानी हो सत्ताधीशों को। किसी न किसी वजह से हम सभी या तो गूंगे बन गए हैं या बना दिए गए हैं। 

फिर भी कुछ "ढीठ लोग", हैं जो आज भी सबको अपनी अपनी आवाज उठाने के लिए लगातार आवाज दे रहे हैं। लेकिन ऐसे लोगों को भी लगातार जेल, मुकदमा, ट्रोलिंग द्वारा जबरन गूंगा बनाने की शासकीय कोशिश बदस्तूर जारी है ताकि देशवासी सहित विदेशियों को भी ऐसा लगे कि अपने देश में सर्वत्र खुशियाली और अमन चैन कायम है।

शरीर का शाँत होना, मृत्यु का संकेत है और सामान्यतया आमलोगों का शाँत रहना यथेष्ठ सुख-सुविधा और ज्ञान का भी परिचायक है। लेकिन असामान्य स्थिति में भी शाँति से खामोश रहना हमारे जीते जी मरने की निशानी है। सचमुच कई बार खुद के भीतर स्वाभाविक रूप से एक सवाल पैदा होता है कि कहीं हम जिन्दा लाशों की बस्ती में तो नहीं रहते?

खुद से देखो उड़ के यार
अहसासों से जुड़ के यार
जैसे गूंगे स्वाद समझते
कह न पाते गुड़ के यार

जीने खातिर सबकी कुछ न कुछ बुनियादी जरूरतें हैं और जिसे यथोचित श्रम करके हम सब हर हाल में हासिल करने के लिए शिद्दत से तलबगार भी हैं। फिर भी वो बुनियादी सुविधाएं अगर हमसे नित्य दूर होती चली जा रहीं हैं और चारों तरफ चुप्पी ही चुप्पी है तो निश्चिरूपेण यह हमारे वैचारिक मुर्दापन का जीवंत प्रमाण है। मीडिया की चकाचौंध भरी आभासी दुनिया से निकलकर अपने आस पास की असलियत की दुनिया में छायी खामोशी को गंभीरतापूर्वक महसूस करिए मेरे प्रिय भरतवंशियों!

मँहगाई, बेरोजगारी, भूखमरी, कुपोषण, रोज घटते रोजगार के अवसर, आत्महत्या करने को विवश आमलोगों को जब भोजन, वस्त्र, आवास, शिक्षा, इलाज में भी परेशानी होने लगे और फिर भी अगर चारों तरफ चुप्पी ही चुप्पी साधे हुए लोग हों तो यह दो बातों का संकेत हो सकता है। (1) - यह कि हम सब वैचारिक रूप से मर चुके हैं और (2) - तूफान आने के पूर्व की शाँति। 

अब आप स्वयं तय करें कि आखिर ये चुप्पी क्यों? पर वैचारिक रूप से हमेशा हमें यह ध्यान रखना चाहिए कि हमारी सामूहिक खामोशी शासकीय तंत्र को और आवारा बनाने में सहयोगी बनेगी। जय हिन्द।

Thursday, May 4, 2023

क्या हम सिर्फ तमाशबीन हैं?

अपने देश में सियासी दलों के मदारियों ने कुछ कुछ ऐसे जमूरे तैयार कर रखे हैं जो उनकी कही / अनकही बातों को तमाशबीनों के सामने अपने अपने रोचक तरीके से पेश करके अपने अपने मदारियों के निजी हित को साध रहे हैं। ये सभी मदारी या तो सत्तासीन हैं या गद्दी हथियाने के लालायित हैं और देश की आम जनता सिर्फ तमाशबीन बनकर रह गई है।

सोशल मीडिया पर इतने नफरत और गंध भरे पोस्ट पहले कभी देखने को नहीं मिलते थे जितने आजकल मिल रहे हैं। यह मैं सोशल मीडिया पर अपने दशकों के अनुभव के आधार पर कह रहा हूँ। सब अपने अपने मदारियों के समर्थन में जी जान से लगे हैं। विष-वमन करती भाषा के साथ साथ विघटनकारी बोल और फिर टिप्पणी में गाली गलौज तो बिल्कुल आम है आजकल। 

आखिर क्या बाँटने की और किसे बाँटने की कोशिशें हो रहीं हैं समाज में? क्या जमूरे इतने बेलगाम हैं? क्या मदारियों का जमूरों पर से नियंत्रण खत्म हो गया है? या यह मदारियों की कोई नयी सियासी रणनीति है? हमें इसे ठीक से समझने की जरूरत है। हम सिर्फ तमाशबीन बनकर नहीं रह सकते क्योंकि इस अर्जित लोकतंत्र में एक नागरिक के रूप में इस समाज को गढ़ने और भविष्य में बेहतर से बेहतर सामाजिक परिवेश बनाने की जिम्मेवारी से हम खुद को बचा नहीं सकते।

मुख्यधारा के सभी समाचार चैनल इसी दिशा-दशा में "राग-सरकारी" गाने को विवश कर दिए गए हैं। कैमरे और कलम पर बंदूक का कठोर पहरा है। वहाँ भी टी आर पी के चक्कर में देश की सही तस्वीर से आम जनता को महरूम रखा जाता है और बहस के नाम पर अपने अपने मदारियों के पक्ष में न्यूज चैनल के एंकरों द्वारा विभिन्न दलों के जमूरों को मुर्गे की तरह खूब लड़वाया जाता है। तथाकथित बहस, वाक् - युद्ध में परिवर्तित होकर अमर्यादित भाषा के साथ गाली गलौज और आजकल तो लाइव हाथापाई तक पहुंच गया है। हम फिर भी तमाशबीन की तरह अपने अपने घरों में "बुद्धु-बक्से" के सामने बैठकर चाय की चुस्की के साथ मजे लेकर सुनते रहते हैं और उसे ही अपना "ज्ञान" समझकर अवसर मिलते ही मित्रों / परिजनों में बाँटने में बिल्कुल भी नहीं हिचकिचाते।

आखिर यह सिलसिला कब तक चलेगा? जब देश महामारी के कारण मौत के मुहाने पर खड़ा था, चिकित्सकीय सुविधा के अभाव में हजारों लोग प्रतिदिन काल के गाल में समा रहे थे, हजारों लोग मौत को गले लगाने हेतु प्रतिक्षित थे, श्मशानों में मृतकों के अंतिम संस्कार के लिए लाइनें लगीं रहतीं थी, फिर भी हम सम्वेदन-हीन की तरह सिर्फ तमाशबीन बने रहे और मदारी अपने जमूरों की मदद से अपना-अपना सियासी करतब दिखा रहा था। वही हाल किसान आन्दोलन के समय भी देखा हमने और  महिला पहलवान आन्दोलन के समय भी। क्या हम सचमुच बेबस हैं? या यथास्थिति से खुद को बाहर निकालने से डरते हैं? या फिर जाने-अनजाने हम मानसिक रूप से"नागरिक" से "प्रजा" में रूपांतरित गये है? सचमुच खुद से खुद के मूल्यांकन की जरूरत है।

अगर हम सिर्फ तमाशबीन हैं तो धिक्कार है हमारी ऐसी सोच पर! क्या हम अपनी सम्वेदना खो चुके हैं? क्या मनुष्यता का कुछ भी अंश हमारे भीतर शेष है? सोच के इस दिवालियेपन पर हर किसी को विचार करना होगा और अगर अपनी अगली पीढ़ी के लिए एक बेहतर सामाजिक परिवेश हम नहीं छोड़ पाए तो याद रखिए हमारी सन्तति भी हमें कभी माफ नहीं करेगी और हम भविष्य में भी धिक्कारे जाएंगे।

मत भूलिए कि मदारी "चाकू" की तरह है और जमूरों के साथ हम सभी तमाशबीन "कद्दू"। चाकू, कद्दू पर गिरे या कद्दू पे चाकू, हर हाल में कटेगा तो कद्दू ही। मदारी सुरक्षित रहेगा और हम, आप कटते रहेंगे। यह भी मत भूलिए की हर मदारी की नजरों में हम सिर्फ एक आंकड़ा भर हैं। तो आईये! अपनी अपनी आँखें खोलिए और खुद के नागरिक-बोध को जगाकर खुद को एक आंकड़ा होने से बचाइए। वरना न तो इतिहास आपको माफ करेगा, न आप ही खुद को माफ कर पाएंगे और न ही आपकी आनेवाली पीढ़ी। जय हिन्द।