Tuesday, September 19, 2023

जिन्दा लाशों की बस्ती से

जो प्राकृतिक रूप से गूंगे हैं, उनकी भावनात्मक अभिव्यक्ति की विवशता को आसानी से समझा जा सकता है। वे अपने दैहिक या प्राकृतिक कारणों से अगर कुछ नहीं व्यक्त कर पाते हैं तो उन्हें दोष नहीं दिया जा सकता।

लेकिन अभी सत्ता पर काबिज रहने के उद्देश्य से लगातार चली जा रही सियासी चाल में पहले आमजनों को वैचारिक रूप से अंधा बनाये की कोशिश हो रही है ताकि सरकारी लालच अथवा भय दिखलाकर उन्हें धीरे धीरे गूंगा बनाने में भी आसानी हो सत्ताधीशों को। किसी न किसी वजह से हम सभी या तो गूंगे बन गए हैं या बना दिए गए हैं। 

फिर भी कुछ "ढीठ लोग", हैं जो आज भी सबको अपनी अपनी आवाज उठाने के लिए लगातार आवाज दे रहे हैं। लेकिन ऐसे लोगों को भी लगातार जेल, मुकदमा, ट्रोलिंग द्वारा जबरन गूंगा बनाने की शासकीय कोशिश बदस्तूर जारी है ताकि देशवासी सहित विदेशियों को भी ऐसा लगे कि अपने देश में सर्वत्र खुशियाली और अमन चैन कायम है।

शरीर का शाँत होना, मृत्यु का संकेत है और सामान्यतया आमलोगों का शाँत रहना यथेष्ठ सुख-सुविधा और ज्ञान का भी परिचायक है। लेकिन असामान्य स्थिति में भी शाँति से खामोश रहना हमारे जीते जी मरने की निशानी है। सचमुच कई बार खुद के भीतर स्वाभाविक रूप से एक सवाल पैदा होता है कि कहीं हम जिन्दा लाशों की बस्ती में तो नहीं रहते?

खुद से देखो उड़ के यार
अहसासों से जुड़ के यार
जैसे गूंगे स्वाद समझते
कह न पाते गुड़ के यार

जीने खातिर सबकी कुछ न कुछ बुनियादी जरूरतें हैं और जिसे यथोचित श्रम करके हम सब हर हाल में हासिल करने के लिए शिद्दत से तलबगार भी हैं। फिर भी वो बुनियादी सुविधाएं अगर हमसे नित्य दूर होती चली जा रहीं हैं और चारों तरफ चुप्पी ही चुप्पी है तो निश्चिरूपेण यह हमारे वैचारिक मुर्दापन का जीवंत प्रमाण है। मीडिया की चकाचौंध भरी आभासी दुनिया से निकलकर अपने आस पास की असलियत की दुनिया में छायी खामोशी को गंभीरतापूर्वक महसूस करिए मेरे प्रिय भरतवंशियों!

मँहगाई, बेरोजगारी, भूखमरी, कुपोषण, रोज घटते रोजगार के अवसर, आत्महत्या करने को विवश आमलोगों को जब भोजन, वस्त्र, आवास, शिक्षा, इलाज में भी परेशानी होने लगे और फिर भी अगर चारों तरफ चुप्पी ही चुप्पी साधे हुए लोग हों तो यह दो बातों का संकेत हो सकता है। (1) - यह कि हम सब वैचारिक रूप से मर चुके हैं और (2) - तूफान आने के पूर्व की शाँति। 

अब आप स्वयं तय करें कि आखिर ये चुप्पी क्यों? पर वैचारिक रूप से हमेशा हमें यह ध्यान रखना चाहिए कि हमारी सामूहिक खामोशी शासकीय तंत्र को और आवारा बनाने में सहयोगी बनेगी। जय हिन्द।

Thursday, May 4, 2023

क्या हम सिर्फ तमाशबीन हैं?

अपने देश में सियासी दलों के मदारियों ने कुछ कुछ ऐसे जमूरे तैयार कर रखे हैं जो उनकी कही / अनकही बातों को तमाशबीनों के सामने अपने अपने रोचक तरीके से पेश करके अपने अपने मदारियों के निजी हित को साध रहे हैं। ये सभी मदारी या तो सत्तासीन हैं या गद्दी हथियाने के लालायित हैं और देश की आम जनता सिर्फ तमाशबीन बनकर रह गई है।

सोशल मीडिया पर इतने नफरत और गंध भरे पोस्ट पहले कभी देखने को नहीं मिलते थे जितने आजकल मिल रहे हैं। यह मैं सोशल मीडिया पर अपने दशकों के अनुभव के आधार पर कह रहा हूँ। सब अपने अपने मदारियों के समर्थन में जी जान से लगे हैं। विष-वमन करती भाषा के साथ साथ विघटनकारी बोल और फिर टिप्पणी में गाली गलौज तो बिल्कुल आम है आजकल। 

आखिर क्या बाँटने की और किसे बाँटने की कोशिशें हो रहीं हैं समाज में? क्या जमूरे इतने बेलगाम हैं? क्या मदारियों का जमूरों पर से नियंत्रण खत्म हो गया है? या यह मदारियों की कोई नयी सियासी रणनीति है? हमें इसे ठीक से समझने की जरूरत है। हम सिर्फ तमाशबीन बनकर नहीं रह सकते क्योंकि इस अर्जित लोकतंत्र में एक नागरिक के रूप में इस समाज को गढ़ने और भविष्य में बेहतर से बेहतर सामाजिक परिवेश बनाने की जिम्मेवारी से हम खुद को बचा नहीं सकते।

मुख्यधारा के सभी समाचार चैनल इसी दिशा-दशा में "राग-सरकारी" गाने को विवश कर दिए गए हैं। कैमरे और कलम पर बंदूक का कठोर पहरा है। वहाँ भी टी आर पी के चक्कर में देश की सही तस्वीर से आम जनता को महरूम रखा जाता है और बहस के नाम पर अपने अपने मदारियों के पक्ष में न्यूज चैनल के एंकरों द्वारा विभिन्न दलों के जमूरों को मुर्गे की तरह खूब लड़वाया जाता है। तथाकथित बहस, वाक् - युद्ध में परिवर्तित होकर अमर्यादित भाषा के साथ गाली गलौज और आजकल तो लाइव हाथापाई तक पहुंच गया है। हम फिर भी तमाशबीन की तरह अपने अपने घरों में "बुद्धु-बक्से" के सामने बैठकर चाय की चुस्की के साथ मजे लेकर सुनते रहते हैं और उसे ही अपना "ज्ञान" समझकर अवसर मिलते ही मित्रों / परिजनों में बाँटने में बिल्कुल भी नहीं हिचकिचाते।

आखिर यह सिलसिला कब तक चलेगा? जब देश महामारी के कारण मौत के मुहाने पर खड़ा था, चिकित्सकीय सुविधा के अभाव में हजारों लोग प्रतिदिन काल के गाल में समा रहे थे, हजारों लोग मौत को गले लगाने हेतु प्रतिक्षित थे, श्मशानों में मृतकों के अंतिम संस्कार के लिए लाइनें लगीं रहतीं थी, फिर भी हम सम्वेदन-हीन की तरह सिर्फ तमाशबीन बने रहे और मदारी अपने जमूरों की मदद से अपना-अपना सियासी करतब दिखा रहा था। वही हाल किसान आन्दोलन के समय भी देखा हमने और  महिला पहलवान आन्दोलन के समय भी। क्या हम सचमुच बेबस हैं? या यथास्थिति से खुद को बाहर निकालने से डरते हैं? या फिर जाने-अनजाने हम मानसिक रूप से"नागरिक" से "प्रजा" में रूपांतरित गये है? सचमुच खुद से खुद के मूल्यांकन की जरूरत है।

अगर हम सिर्फ तमाशबीन हैं तो धिक्कार है हमारी ऐसी सोच पर! क्या हम अपनी सम्वेदना खो चुके हैं? क्या मनुष्यता का कुछ भी अंश हमारे भीतर शेष है? सोच के इस दिवालियेपन पर हर किसी को विचार करना होगा और अगर अपनी अगली पीढ़ी के लिए एक बेहतर सामाजिक परिवेश हम नहीं छोड़ पाए तो याद रखिए हमारी सन्तति भी हमें कभी माफ नहीं करेगी और हम भविष्य में भी धिक्कारे जाएंगे।

मत भूलिए कि मदारी "चाकू" की तरह है और जमूरों के साथ हम सभी तमाशबीन "कद्दू"। चाकू, कद्दू पर गिरे या कद्दू पे चाकू, हर हाल में कटेगा तो कद्दू ही। मदारी सुरक्षित रहेगा और हम, आप कटते रहेंगे। यह भी मत भूलिए की हर मदारी की नजरों में हम सिर्फ एक आंकड़ा भर हैं। तो आईये! अपनी अपनी आँखें खोलिए और खुद के नागरिक-बोध को जगाकर खुद को एक आंकड़ा होने से बचाइए। वरना न तो इतिहास आपको माफ करेगा, न आप ही खुद को माफ कर पाएंगे और न ही आपकी आनेवाली पीढ़ी। जय हिन्द।

Monday, January 23, 2023

सा विद्या या विमुक्तये

एक रोचक अनुभव से अपनी बात शुरू करता हूँ। कुछ साल पहले हाई स्कूल के कुछ विद्यार्थी मेरे घर सरस्वती पूजा के लिए चन्दा करने आए। जैसा कि अमूमन होता है,  समय के अनुरूप उन बच्चों ने कुछ ज्यादे रकम की माँग की। मैंने कहा तुमलोगों की बातें मुझे एक शर्त पर स्वीकार है यदि तुम में से कोई बच्चा सरस्वती माता के नाम का पाँच पर्यायवाची बता दो तो? 

आश्चर्य हुआ कि वे बच्चे यह नहीं बता सके और फिर मैंने जो चन्दा में  दिया लेकर चले गए क्योंकि वे वाग्देवी सरस्वती की सच्ची साधना से उन्हें विशेष लगाव नहीं था। यदि सच्ची साधना (पढ़ाई-लिखाई) करते तो मुझे सही उत्तर भी मिलता और उनलोगों को मुँहमाँगी रकम भी सरस्वती पूजन के लिए। दरअसल आज के हालात ऐसे बन ही  गए  हैं या बनाए गए हैं कि जो सरस्वती के सच्चे साधक होते हैं वे अक्सर गली मुहल्लों में, यत्र तत्र चन्दा इकट्ठा करके पूजा करते हुए दिखाई नहीं देते बल्कि माता की आराधना पुस्तकों में डूबकर करते हैं। खैर ---

साहित्य -संगीत - कला की अधिष्ठात्री देवी सरस्वती हिन्दु धर्म की प्रमुख देवियों में से एक है जिन्हें धर्म शास्त्रों में कहीं ब्रह्मा की "मानस - पुत्री" कहा गया है तो देवी भागवत में ब्रहमा की स्त्री भी कहा गया है  साथ ही  शारदा, शतरूपा, वाणी, वाग्देवी, वागेश्वरी, भारती आदि कई नामों से उन्हें जाना जाता है। सिर्फ भारत ही नहीं बल्कि अन्य देशों में सरस्वती या विद्या की देवी को कई अन्य नामों से पुकारा जाता है - जैसे - बर्मा में - "थुराथाडी" या "तिपिटक मेदा", चीन में - "बियानचाइत्यान", जापान में - "बेंजाइतेन" तो थाईलैंड में - "सुरसवदी" आदि। 

एक हाथ में पुस्तक, एक हाथ में वीणा, श्वेत कमल पर वास करनेवाली देवी सरस्वती श्वेत हंस पर सवार होकर विचरण करतीं हैं। ऐसी मान्यता है कि माघ शुक्ल पक्ष पंचमी (जिसे वसंत पंचमी भी कहा जाता है और इसी दिन से होली खेलने की शुरूआत भी हो जाती है) को सरस्वती का जन्म हुआ और सदियों से इसी दिन सरस्वती पूजा के रूप में मनाये जाने का चलन है। शिक्षा की गरिमा, बौद्धिक विकास की आवश्यकता जन-जन को समझाने के लिए सरस्वती पूजा की परम्परा है। अतः सभी शिक्षण संस्थानों में इसे समारोह पूर्वक मनाया जाता है और हम समवेत स्वर में उद्घोष करते हैं कि "तमसो मा ज्योतिर्गमय" ताकि ज्ञान रूपी प्रकाश की अधिकता से हम सब की पशुता मरे और उच्चतर मनुष्यता प्राप्ति की ओर हम सब नित्य अग्रसर हो सकें।

बचपन में एक नीति श्लोक पढ़ा करता था जो आज के प्रसंग मे बहुत समीचीन है कि -

"विद्या ददाति विनयम् विनयद्याति पात्रताम्।
पात्रत्वा धनमाप्नोति धनात् धर्मः ततः सुखम्।।

आज के दुरूह और गलाकाट प्रतियोगिता वाले इस भौतिकतावादी युग में ऐसे नीति श्लोकों की महत्ता और बढ़ जाती है। अर्थ बिल्कुल सामान्य है पर मनुष्य होने के नाते इसका मनन करना आवश्यक है क्योंकि अपने आप में "मनन" करके ही "मनुष्य" बनने की सार्थकता संभव है। विद्या सर्वप्रथम विनयशीलता देती है और विनम्रता से "पात्रता" आती है। पात्रता अर्थात पात्र (बर्तन) बनना। पात्रता आते ही धन का आगमन फिर धर्म और सुख की कामना। 

यदि गौर से सोचें तो  प्रायः सभी के  जीवन का यही लक्ष्य भी होता है। यह भी सत्य है कि वैज्ञानिक विकास के साथ शिक्षा के आयाम, संसाधन, संस्थान आदि पहले के वनिस्पत प्रचूर मात्रा में बढ़ हैं और इसके साथ साथ शिक्षार्थियों की संख्या में काफी इजाफा हुआ है किन्तु क्या उसी अनुपात में विनयशीलता बढ़ी है? यह मौलिक प्रश्न हमारे आपके सामने मुँह बाये खड़ा है। 

हम सबका प्रत्यक्ष अनुभव तो यही है कि ऊँची डिग्री प्राप्त करके भी अधिकतर लोग विनयशील नहीं हैं और सामान्य डिग्रियों वाले का फिर कहना ही क्या? विनम्रता का अभाव शिक्षा का मूल उद्येश्य ही समाप्त कर देता है। फिर कहाँ से पात्रता, काहे का धर्म और कैसा सुख?

संस्कृत का एक सूत्र - वाक्य "सा विद्या या विमुक्तये" मुझे हमेशा प्रेरित करते रहता है। विद्या हम उसे ही कह सकते हैं जो हम सबको जीवन के बंधनों से आज़ाद करे, मुक्त करे। कई उलझनों में उलझा हम सबका जीवन नित्य जीवन में व्याप्त बंधनों से मुक्ति की माँग करता है और हम सब अपने अपने प्राप्त ज्ञान के आधार पर उसे सुलझाते भी हैं और यह सुलझाने की प्रक्रिया जीवन पर्यंत चलती रहती है ताकि जिन्दगी आसान बन सके। 

आज के इस विद्रूप भोगवादी और भौतिकतावादी युग में, जहाँ समाज में विनम्रता की जगह उदण्डता बढ़ी है, जरूरत है सरस्वती की सच्ची उपासना, सही अर्थों में ज्ञानार्जन तथा उसके दैनिक उपयोग की ताकि यह समाज हम सब के साथ साथ अगली पीढ़ी के लिए भी जीने लायक रह सके।

और अन्त में सरस्वती माता के वरद्-पुत्र माने जाने वाले सूर्यकान्त त्रपाठी "निराला" जी, जिनका जन्म दिवस भी वसंत पंचमी को ही मनाया जाता है, की यादों को नमन करते हुए उन्हीं के द्वारा रचित सरस्वती वन्दना की दो पंक्तियों से अपनी बात समाप्त करता हूँ ।
नव गति, नव लय, ताल छंद नव, नवल कंठ, नव जलद मंद्र रव।
नव नभ के नव चिहग-वृन्द को नव पर नव स्वर दे।
वीणा वादिनी वर दे।।

Tuesday, December 20, 2022

भाषाई आतंकवाद

अभी के दौर में एक दूसरे का दोष निकालना, तल्ख लहजे में बतियाने का मानो फैशन हो गया है। सभी खुद को अच्छा और सामनेवाले को बुरा साबित करने में मानो अपने सारे तर्क, सारी शिष्टता और मर्यादाओं की सीमा पार करने में तनिक देरी नहीं करते हैं। इस तरह की बातचीत में आजकल साहचर्य से अधिक दुराव की भावना अधिक विद्यमान रहती हैं।

राजनैतिक दलों के नेता और उनके समर्थक एक दूसरे को सार्वजनिक सभा से लेकर टीवी चैनल पर गरमाते, चिल्लाते, एक दूसरे को धकियाते / गरियाते हुए आसानी से देखे जा सकते हैं। इस प्रकार के जीवों की संख्या आजकल बहुत बढ़ गयी है। मजे की बात है कि सभी दल खुद को जनता का सबसे बड़ा "हितैषी" बताते नहीं अघाते हैं जबकि इन्हीं राजनैतिक दलों की चालबाजी से आजतक सिर्फ आम जनता का ही नुकसान हुआ है। 

राजनीति से अलग जीवन के सभी क्षेत्र जैसे शिक्षा, पत्रकारिता, न्यायिक कार्यालय, सरकारी कार्यालय यहाँ तक कि सामाजिक, पारिवारिक रिश्तों में हम आप भाषा की इस गिरावट और आपसी तल्ख स्वभाव को आसानी से देख, सुन और महसूस सकते हैं। 

भाषा, संस्कृति की वाहिका होती है। अतः यह सिर्फ भाषायी गिरावट नहीं बल्कि सांस्कृतिक गिरावट भी है जो आनेवाली पीढ़ी के लिए एक अशुभ संकेत है। आखिर हम, आप कब चेतेंगे? 

हम कलमकार भी इस संक्रामक रोग की जद में खुलकर आते हुए दिखाई पड़ रहे हैं किसी एक समूह के पक्ष या विपक्ष में। जबकि कलमकार / संस्कृति कर्मी न तो पक्ष या विपक्ष का होता है बल्कि वह निष्पक्ष होता है। 

मेरा वैयक्तिक रुप से यह मानना है कि कलमकार हमेशा धारा के विपरीत नाव चलाता है। प्राचीन काल से आजतक एक सच्चा कलमकार तत्कालीन शासन व्यवस्था से लेखनी के माध्यम से लड़कर हमेशा सामाजिक पक्षधरता की बात करता है ताकि एक बेहतर सामाजिक परिवेश बन सके आनेवाली पीढ़ी के लिए और वस्तुतः यही उसका धर्म और नैतिक कर्तव्य भी है। 

मौलिक रूप से मैं काव्य जगत में सतत विचरनेवाला एक साधारण आदमी जब मन बहुत व्याकुल होता तो कभी कभी गद्यात्मक भावोद्गार के साथ उपस्थित होता हूँ।

अपना ही एक मतला और एक शेर कि -

वो घड़ी, हर घड़ी याद आती रहे 
गम भुलाकर जो खुशियाँ सजाती रहे

जिन्दगी से अगरबत्तियों ने कहा 
राख बनकर तू खुशबू लुटाती रहे 

Monday, December 19, 2022

मुक्त-छंद और छंद-मुक्त कविता

शीर्षक के अनुसार कभी एक कविता पोस्ट किया था। कुछ मित्रों के प्रश्नों के समाधान हेतु अपना पक्ष रखते हुए मुझे एक लम्बी टिपण्णी लिखनी पडी। बाद में मित्रों के आग्रह को स्वीकार करते हुए उसी टिपण्णी को मामूली संशोधन के साथ पोस्ट कर रहा हूँ आपके अवलोकन और विचार हेतु।

मैं अपनी समझ से अपनी बात रखने की चेष्टा करता हूँ जिससे सहमत / असहमत होना पूर्णतः पाठक मित्रों की इच्छा पर है। असहमत होने पर भी मुझे कोई दुख नहीं होगा। मैं यह भी विनम्रता सै स्वीकार करता हूँ कि मुझसे अच्छे और सटीक विचार आ सकते हैं जिसे मैं भी सहर्ष स्वीकार करूँगा।

जब भी कहीं "मुक्त छंद की बात होती है अक्सर लोग एक बडा नाम निराला का उदाहरण सामने रख देते हैं। निराला की एक मुक्त छंद की कविता (शायद इस तरह की पहली चर्चित) सामने आती है कि - 

वो आता
दो टूक कलेजे के करता
पछताता
पथ पर जाता ------

यदि इस रचना पर हम गौर करें / इसे लय से पढ़ें तो हम स्वाभाविक रूप से पाते हैं कि इसमें छंद / लय तो है पर यह एक स्थापित "छंद विधान" से मुक्त है।

हमारे साहित्य में दोहा, चौपाई, सोरठा, कुण्डली आदि अनेकानेक स्थापित छंद हैं जिसमें निश्चित मात्रा / विधान तय किए हुए हैं और उस छंद को लिखने के लिए उससे बाहर जाने की अनुमति हमारे शास्त्रज्ञ नहीं देते।

समय के साथ यह भी महसूस किया जाने लगा कि हर समय, हर बात, हर घटना को स्थापित छंदों के नियमो का पालन करते हुए कहना कई बार मुश्किल होता है। किंचित इसी कठिनाई के समाधान के रूप में ऐसी कविता आयी, फली फूली और विकसित भी हुई। कालक्रम में इस प्रकार की कविता की विकास याात्रा बढ़ती रही और कई अत्यंत महत्वपूर्ण कविताएँ सामने भी आयीं जिसकी स्वीकार्यता बढ़ती गयी।

हर विकास यात्रा की तरह इस विकास यात्रा में सकारात्मक पक्ष के अलावा नकारात्मक पक्ष का भी विकास होता रहा है और "मुक्त छंद" के बदले "छंद मुक्त" कविता लिखी जाने लगी जो आजकल तो धड़ल्ले से लिखी जा रही है और कई लोग तो इसे "गद्य कविता" तक कह जाते हैं।

"छंद मुक्त" कविता में हमने उस कविता को छंद / लय/ रिदम से पूरी तरह से मुक्त करना शुरू कर दिया जो "मुक्त छंद" के विकास के कारण छंद विधान से पहले से ही मुक्त हो चुकी थी। परिणाम स्वरूप कविता अलोकप्रिय होने लगी या दूसरे शब्दों में कहें तो कविता मरने लगी। जिन्हें "छंद मुक्त" कविता लिखना है उनके लिए "गद्य लेखन" का सहारा लेना ही श्रेयष्कर है क्योंकि गद्य लेखन का फलक भी बहुत विस्तृत है।

कविता का जुड़ाव सीधे तौर पर प्रकृति के साथ है। प्रकृति में नदियों की धारा के कलकल का स्वर हो या पत्तों के हिलने से होनेवाली आवाज, या चिड़ियों का कलरव या फिर कुछ और हर स्वर / हर आवाज में एक रिदम / एक ताल / एक लयबद्धता हम आसानी से महसूस कर सकते हैं। यहाँ तक कि गहरी नींद में सोये हुए इन्सान की साँसों तक में एक लयबद्धता है और कविता में छंद एवं छंदबद्धता इन्हीं प्राकृतिक हलचल गहराई से जुड़ी है। या यूँ कहें कि छंद कविता की आत्मा है।

अर्थात कविता का मौलिक उत्स यही प्राकृतिक गतिविधियों से जुडी छंदबद्धता से ही है। अतः जब जब कविता छंद विहीन होगी तब तब कविता कमजोर होगी / मरेगी। अतः कविता और छंद के जुडाव को बनाए रखें ताकि कविता बढ़ती रहे अपनी नैसर्गिक सुन्दरता के साथ अनवरत - लगातार।

Saturday, December 17, 2022

बहुत खतरनाक है भीष्म की खामोशी

द्रोपदी से भी बदतर स्थिति में है भारतीय लोकतंत्र के मंदिर संसद का जिसका चीरहरण बदस्तूर जारी है। द्रोपदी का चीरहरण एक बार हुआ था पर संसद का दशकों से बार बार हो रहा है। द्रोपदी चीरहरण को देखने वाले सिर्फ हस्तिनापुर के राज दरबार के लोग थे पर संसद के चीरहरण को हस्तिनापुर के साथ साथ पूरी दुनिया बार बार देख रही है। भीष्म तब भी खामोश थे और भीष्म आज भी खामोश हैं। इतिहास साक्षी है कि भीष्म की खामोशी महाभारत जैसे विनाशकारी युद्ध को आमंत्रित करती है।

भीष्म कोई खास व्यक्ति नहीं बल्कि वो प्रतीक है शक्ति सम्पन्न संवैधानिक प्रमुख का जिसने शायद पहले की तरह हस्तिनापुर के सिंहासन पर बैठे व्यक्ति की वफादारी का संकल्प ले रखा है। कमोबेश द्वापर जैसी स्थिति आज भी है। अन्तर बस इतना है कि द्वापर में प्रजा चुपके चुपके अपने अपने ढंग से शासकीय कृत्य की चर्चा किया करती थी पर आज प्रजा चीख रही लेकिन उस चीख को आज के बिकाऊ मीडिया के भोंपू से प्रयास पूर्वक दबाया जा रहा है।

प्रजा को खौफ में रखने का चलन शुरू से है। प्रजा कल भी खौफ में थी और आज भी खौफ में ही है। न्यायिक प्रक्रिया में घोर भ्रष्टाचार है, न्यायाधीश तक को "मैनेज" करके मनमाफिक जजमेंट करवाये जाने के कई मामले प्रकाश में आते रहे हैं। फिर भी अगर न्यायालय के खिलाफ किसी ने कुछ कहा तो न्यायिक अवमानना का खतरा। राष्ट्रपति संवैधानिक प्रमुख हैं, उनके खिलाफ बोले तो कई कानूनी मामले के लपेटे में आने का डर। किसी खास राजनीतिक दल या नेता के खिलाफ में अगर आपने आवाज उठायी तो सम्बन्धित दल या नेता के "भक्तगण" आप पर टूट पड़ेंगे और आपकी बोलती बन्द करा देंगे। संसद सदस्यों में से किसी की आत्मा अगर गलती से भी जग गयी और वह अपने दल या नेता के खिलाफ जुबान खोलने की हिम्मत की तो दल से निकाले जाने का खतरा था संसद की सदस्यता से हाथ धोने का डर के कारण उनकी आत्मा पुनः सो जाती है। 

अर्थात प्रजा को खौफ से खामोश कराया जाता है और भीष्म? वो तो हस्तिनापुर की गद्दी पर बैठे व्यक्ति की वफादारी के लिए संकल्पित है। अतः भीष्म खामोश रहेंगे ही चाहे फिर से एकबार महाभारत ही क्यों ना हो जाए।

राष्ट्रगान आए ना जिनको वो संसद के पहरेदार 
भारतवासी अब तो चेतो लोकतंत्र सचमुच बीमार 
                        
सादर 
श्यामल सुमन

Monday, September 26, 2022

बिना मुस्कान के कैसा इन्सान?

हमारी मुस्कान ही हमें मुकम्मल इन्सान बनाती है। इन्सान के अलावा शायद और किसी जीव को सामान्यतया हँसते नहीं देखा गया है। जीवनयापन के क्रम में हजारों हजार जद्दोजहद के बीच हमारी मुस्कुराहट हमें नयी उर्जा देती है लेकिन पता नहीं क्यों और कैसे आजकल हम भूल गए हैं अपनी सहज मुस्कान को?

इत्तेफाक से मैं करीब 22 सालों तक एक ऐसे मकान का निवासी रहा जो एक भीड़भाड़ वाले बाजार के बीच था जहाँ वक्त मिलने पर मैं अपने गेट पर अक्सर बैठकर आते जाते अनजाने लोगों में सहज और स्वाभाविक मुस्कान की तलाश में उन चेहरों को बहुत गौर से देखा करता था लेकिन अफसोस! मुझे अधिकतर लोगों के चेहरे पर परेशानी, तनाव के ही दर्शन हुए। इसी भीड़ में अगर कुछ परिचितों से नजरें मिलीं तो औपचारिकतावश वे जबरन अपने होंठों पर मुस्कान लाने में भी सफल हुए जिस प्रकार रिशेप्शन पर बैठे लोगों द्वारा ग्राहकों के सामने "व्यावसायिक मुस्कान" सायस उत्पन्न की जाती है। हाँ ! हजारों चेहरे में कभी कभी एकाध चेहरे अनायास सहज भी दिखे। आखिर क्यों और कहाँ खो गयी है हमारी मुस्कान? जबकि हम जानते हैं कि बिना मुस्कान के कैसा इन्सान?

हम सबके जीवन में अक्सर हम अपने अपने स्तर पर पाते हैं कि "सुख की पोटली" बहुत छोटी है और "दुख का बोझ" बहुत बड़ा है। मनोवैज्ञानिक दृष्टि से भी अक्सर हमें अपना दुख और दूसरे का सुख बड़ा दिखता है जबकि हकीकत यह है कि सबकी परेशानी का अपना अपना सबब है, उसके अलग प्रभाव, उससे निबटने के अपने अपने तरीके और संसाधन हैं लेकिन हर हाल में जीवन के हर संघर्ष में हमारा हौसला ही हमारा सच्चा साथी साबित होता है और हम सब हौसला-रूपी अपने इस परममित्र से जाने अनजाने लगातार दूर क्यों होते जा रहे हैं? कभी कहीं सुना था कि -

बोझ गर होता गमों का तो उठा लेते
जिन्दगी बोझ बनी है तो उठाएं कैसे

लेकिन नहीं मित्रों! मेरी दृष्टि में जिन्दगी बोझ नहीं बल्कि खुदा की नेमत है जिसे हमें अपने श्रम, संघर्ष से उसे और बेहतर बनाने हेतु आजीवन प्रयास करते रहना होगा ताकि आनेवाली पीढ़ी भी हमसे सीखकर संघर्ष की इस विरासत को लेकर आगे का जीवन सफर सफलतापूर्वक तय कर सके। अपनी बहुत पुरानी पंक्तियां याद आयीं कि - 

संघर्ष न किया तो धिक्कार जिन्दगी है
काँटों का सेज फिर भी स्वीकार जिन्दगी है

तो चलिए मित्रों! जीवन के हजारों हजार संघर्षों के बीच, अपने लिए, अपनी आनेवाली पीढ़ी के लिए, समाज, देश, दुनिया में सबके साथ मिलकर जीने के लिए हौसले के साथ हम अपनी मुस्कान को लौटाने की कोशिश करके एक मुकम्मल इन्सान बनने की दिशा में अपना अपना कदम बढ़ाएं। सिर्फ "मुस्कान" शब्द को केन्द्रित करके बहुत पहले कुछ दोहों का सृजन मेरे द्वारा हुआ था उसी के साथ आज विराम लेता हूं कि -

दोनों में अन्तर बहुत, आंखों से पहचान।
स्वाभाविक मुस्कान या, व्यवसायिक मुस्कान।।

जीवन वह जीवन्त है, जहाँ नहीं अभिमान।
सुख दुख से लड़ते मगर, चेहरे पर मुस्कान।।

ज्ञान किताबी ही नहीं, व्यवहारिक हो ज्ञान।
छले गए विद्वान भी, मीठी जब मुस्कान।।

अपनापन या है जहर, हो इसकी पहचान।
दर्द, प्रेम या और कुछ, क्या कहती मुस्कान।।

क्या किसका कब रूप है, होश रहे औ ध्यान।
घातक या फिर प्रेमवश, या कातिल मुस्कान।।

कभी जरूरत है कभी, मजबूरी श्रीमान।
प्रायोजित होती जहाँ, लज्जित है मुस्कान।।

जीव सभी हँसते कहाँ, आदम को वरदान।
हृदय सुमन का वास तब, स्वाभाविक मुस्कान।।