लेकिन अभी सत्ता पर काबिज रहने के उद्देश्य से लगातार चली जा रही सियासी चाल में पहले आमजनों को वैचारिक रूप से अंधा बनाये की कोशिश हो रही है ताकि सरकारी लालच अथवा भय दिखलाकर उन्हें धीरे धीरे गूंगा बनाने में भी आसानी हो सत्ताधीशों को। किसी न किसी वजह से हम सभी या तो गूंगे बन गए हैं या बना दिए गए हैं।
फिर भी कुछ "ढीठ लोग", हैं जो आज भी सबको अपनी अपनी आवाज उठाने के लिए लगातार आवाज दे रहे हैं। लेकिन ऐसे लोगों को भी लगातार जेल, मुकदमा, ट्रोलिंग द्वारा जबरन गूंगा बनाने की शासकीय कोशिश बदस्तूर जारी है ताकि देशवासी सहित विदेशियों को भी ऐसा लगे कि अपने देश में सर्वत्र खुशियाली और अमन चैन कायम है।
शरीर का शाँत होना, मृत्यु का संकेत है और सामान्यतया आमलोगों का शाँत रहना यथेष्ठ सुख-सुविधा और ज्ञान का भी परिचायक है। लेकिन असामान्य स्थिति में भी शाँति से खामोश रहना हमारे जीते जी मरने की निशानी है। सचमुच कई बार खुद के भीतर स्वाभाविक रूप से एक सवाल पैदा होता है कि कहीं हम जिन्दा लाशों की बस्ती में तो नहीं रहते?
खुद से देखो उड़ के यार
अहसासों से जुड़ के यार
जैसे गूंगे स्वाद समझते
कह न पाते गुड़ के यार
जीने खातिर सबकी कुछ न कुछ बुनियादी जरूरतें हैं और जिसे यथोचित श्रम करके हम सब हर हाल में हासिल करने के लिए शिद्दत से तलबगार भी हैं। फिर भी वो बुनियादी सुविधाएं अगर हमसे नित्य दूर होती चली जा रहीं हैं और चारों तरफ चुप्पी ही चुप्पी है तो निश्चिरूपेण यह हमारे वैचारिक मुर्दापन का जीवंत प्रमाण है। मीडिया की चकाचौंध भरी आभासी दुनिया से निकलकर अपने आस पास की असलियत की दुनिया में छायी खामोशी को गंभीरतापूर्वक महसूस करिए मेरे प्रिय भरतवंशियों!
मँहगाई, बेरोजगारी, भूखमरी, कुपोषण, रोज घटते रोजगार के अवसर, आत्महत्या करने को विवश आमलोगों को जब भोजन, वस्त्र, आवास, शिक्षा, इलाज में भी परेशानी होने लगे और फिर भी अगर चारों तरफ चुप्पी ही चुप्पी साधे हुए लोग हों तो यह दो बातों का संकेत हो सकता है। (1) - यह कि हम सब वैचारिक रूप से मर चुके हैं और (2) - तूफान आने के पूर्व की शाँति।
अब आप स्वयं तय करें कि आखिर ये चुप्पी क्यों? पर वैचारिक रूप से हमेशा हमें यह ध्यान रखना चाहिए कि हमारी सामूहिक खामोशी शासकीय तंत्र को और आवारा बनाने में सहयोगी बनेगी। जय हिन्द।