Tuesday, December 20, 2022

भाषाई आतंकवाद

अभी के दौर में एक दूसरे का दोष निकालना, तल्ख लहजे में बतियाने का मानो फैशन हो गया है। सभी खुद को अच्छा और सामनेवाले को बुरा साबित करने में मानो अपने सारे तर्क, सारी शिष्टता और मर्यादाओं की सीमा पार करने में तनिक देरी नहीं करते हैं। इस तरह की बातचीत में आजकल साहचर्य से अधिक दुराव की भावना अधिक विद्यमान रहती हैं।

राजनैतिक दलों के नेता और उनके समर्थक एक दूसरे को सार्वजनिक सभा से लेकर टीवी चैनल पर गरमाते, चिल्लाते, एक दूसरे को धकियाते / गरियाते हुए आसानी से देखे जा सकते हैं। इस प्रकार के जीवों की संख्या आजकल बहुत बढ़ गयी है। मजे की बात है कि सभी दल खुद को जनता का सबसे बड़ा "हितैषी" बताते नहीं अघाते हैं जबकि इन्हीं राजनैतिक दलों की चालबाजी से आजतक सिर्फ आम जनता का ही नुकसान हुआ है। 

राजनीति से अलग जीवन के सभी क्षेत्र जैसे शिक्षा, पत्रकारिता, न्यायिक कार्यालय, सरकारी कार्यालय यहाँ तक कि सामाजिक, पारिवारिक रिश्तों में हम आप भाषा की इस गिरावट और आपसी तल्ख स्वभाव को आसानी से देख, सुन और महसूस सकते हैं। 

भाषा, संस्कृति की वाहिका होती है। अतः यह सिर्फ भाषायी गिरावट नहीं बल्कि सांस्कृतिक गिरावट भी है जो आनेवाली पीढ़ी के लिए एक अशुभ संकेत है। आखिर हम, आप कब चेतेंगे? 

हम कलमकार भी इस संक्रामक रोग की जद में खुलकर आते हुए दिखाई पड़ रहे हैं किसी एक समूह के पक्ष या विपक्ष में। जबकि कलमकार / संस्कृति कर्मी न तो पक्ष या विपक्ष का होता है बल्कि वह निष्पक्ष होता है। 

मेरा वैयक्तिक रुप से यह मानना है कि कलमकार हमेशा धारा के विपरीत नाव चलाता है। प्राचीन काल से आजतक एक सच्चा कलमकार तत्कालीन शासन व्यवस्था से लेखनी के माध्यम से लड़कर हमेशा सामाजिक पक्षधरता की बात करता है ताकि एक बेहतर सामाजिक परिवेश बन सके आनेवाली पीढ़ी के लिए और वस्तुतः यही उसका धर्म और नैतिक कर्तव्य भी है। 

मौलिक रूप से मैं काव्य जगत में सतत विचरनेवाला एक साधारण आदमी जब मन बहुत व्याकुल होता तो कभी कभी गद्यात्मक भावोद्गार के साथ उपस्थित होता हूँ।

अपना ही एक मतला और एक शेर कि -

वो घड़ी, हर घड़ी याद आती रहे 
गम भुलाकर जो खुशियाँ सजाती रहे

जिन्दगी से अगरबत्तियों ने कहा 
राख बनकर तू खुशबू लुटाती रहे 

Monday, December 19, 2022

मुक्त-छंद और छंद-मुक्त कविता

शीर्षक के अनुसार कभी एक कविता पोस्ट किया था। कुछ मित्रों के प्रश्नों के समाधान हेतु अपना पक्ष रखते हुए मुझे एक लम्बी टिपण्णी लिखनी पडी। बाद में मित्रों के आग्रह को स्वीकार करते हुए उसी टिपण्णी को मामूली संशोधन के साथ पोस्ट कर रहा हूँ आपके अवलोकन और विचार हेतु।

मैं अपनी समझ से अपनी बात रखने की चेष्टा करता हूँ जिससे सहमत / असहमत होना पूर्णतः पाठक मित्रों की इच्छा पर है। असहमत होने पर भी मुझे कोई दुख नहीं होगा। मैं यह भी विनम्रता सै स्वीकार करता हूँ कि मुझसे अच्छे और सटीक विचार आ सकते हैं जिसे मैं भी सहर्ष स्वीकार करूँगा।

जब भी कहीं "मुक्त छंद की बात होती है अक्सर लोग एक बडा नाम निराला का उदाहरण सामने रख देते हैं। निराला की एक मुक्त छंद की कविता (शायद इस तरह की पहली चर्चित) सामने आती है कि - 

वो आता
दो टूक कलेजे के करता
पछताता
पथ पर जाता ------

यदि इस रचना पर हम गौर करें / इसे लय से पढ़ें तो हम स्वाभाविक रूप से पाते हैं कि इसमें छंद / लय तो है पर यह एक स्थापित "छंद विधान" से मुक्त है।

हमारे साहित्य में दोहा, चौपाई, सोरठा, कुण्डली आदि अनेकानेक स्थापित छंद हैं जिसमें निश्चित मात्रा / विधान तय किए हुए हैं और उस छंद को लिखने के लिए उससे बाहर जाने की अनुमति हमारे शास्त्रज्ञ नहीं देते।

समय के साथ यह भी महसूस किया जाने लगा कि हर समय, हर बात, हर घटना को स्थापित छंदों के नियमो का पालन करते हुए कहना कई बार मुश्किल होता है। किंचित इसी कठिनाई के समाधान के रूप में ऐसी कविता आयी, फली फूली और विकसित भी हुई। कालक्रम में इस प्रकार की कविता की विकास याात्रा बढ़ती रही और कई अत्यंत महत्वपूर्ण कविताएँ सामने भी आयीं जिसकी स्वीकार्यता बढ़ती गयी।

हर विकास यात्रा की तरह इस विकास यात्रा में सकारात्मक पक्ष के अलावा नकारात्मक पक्ष का भी विकास होता रहा है और "मुक्त छंद" के बदले "छंद मुक्त" कविता लिखी जाने लगी जो आजकल तो धड़ल्ले से लिखी जा रही है और कई लोग तो इसे "गद्य कविता" तक कह जाते हैं।

"छंद मुक्त" कविता में हमने उस कविता को छंद / लय/ रिदम से पूरी तरह से मुक्त करना शुरू कर दिया जो "मुक्त छंद" के विकास के कारण छंद विधान से पहले से ही मुक्त हो चुकी थी। परिणाम स्वरूप कविता अलोकप्रिय होने लगी या दूसरे शब्दों में कहें तो कविता मरने लगी। जिन्हें "छंद मुक्त" कविता लिखना है उनके लिए "गद्य लेखन" का सहारा लेना ही श्रेयष्कर है क्योंकि गद्य लेखन का फलक भी बहुत विस्तृत है।

कविता का जुड़ाव सीधे तौर पर प्रकृति के साथ है। प्रकृति में नदियों की धारा के कलकल का स्वर हो या पत्तों के हिलने से होनेवाली आवाज, या चिड़ियों का कलरव या फिर कुछ और हर स्वर / हर आवाज में एक रिदम / एक ताल / एक लयबद्धता हम आसानी से महसूस कर सकते हैं। यहाँ तक कि गहरी नींद में सोये हुए इन्सान की साँसों तक में एक लयबद्धता है और कविता में छंद एवं छंदबद्धता इन्हीं प्राकृतिक हलचल गहराई से जुड़ी है। या यूँ कहें कि छंद कविता की आत्मा है।

अर्थात कविता का मौलिक उत्स यही प्राकृतिक गतिविधियों से जुडी छंदबद्धता से ही है। अतः जब जब कविता छंद विहीन होगी तब तब कविता कमजोर होगी / मरेगी। अतः कविता और छंद के जुडाव को बनाए रखें ताकि कविता बढ़ती रहे अपनी नैसर्गिक सुन्दरता के साथ अनवरत - लगातार।

Saturday, December 17, 2022

बहुत खतरनाक है भीष्म की खामोशी

द्रोपदी से भी बदतर स्थिति में है भारतीय लोकतंत्र के मंदिर संसद का जिसका चीरहरण बदस्तूर जारी है। द्रोपदी का चीरहरण एक बार हुआ था पर संसद का दशकों से बार बार हो रहा है। द्रोपदी चीरहरण को देखने वाले सिर्फ हस्तिनापुर के राज दरबार के लोग थे पर संसद के चीरहरण को हस्तिनापुर के साथ साथ पूरी दुनिया बार बार देख रही है। भीष्म तब भी खामोश थे और भीष्म आज भी खामोश हैं। इतिहास साक्षी है कि भीष्म की खामोशी महाभारत जैसे विनाशकारी युद्ध को आमंत्रित करती है।

भीष्म कोई खास व्यक्ति नहीं बल्कि वो प्रतीक है शक्ति सम्पन्न संवैधानिक प्रमुख का जिसने शायद पहले की तरह हस्तिनापुर के सिंहासन पर बैठे व्यक्ति की वफादारी का संकल्प ले रखा है। कमोबेश द्वापर जैसी स्थिति आज भी है। अन्तर बस इतना है कि द्वापर में प्रजा चुपके चुपके अपने अपने ढंग से शासकीय कृत्य की चर्चा किया करती थी पर आज प्रजा चीख रही लेकिन उस चीख को आज के बिकाऊ मीडिया के भोंपू से प्रयास पूर्वक दबाया जा रहा है।

प्रजा को खौफ में रखने का चलन शुरू से है। प्रजा कल भी खौफ में थी और आज भी खौफ में ही है। न्यायिक प्रक्रिया में घोर भ्रष्टाचार है, न्यायाधीश तक को "मैनेज" करके मनमाफिक जजमेंट करवाये जाने के कई मामले प्रकाश में आते रहे हैं। फिर भी अगर न्यायालय के खिलाफ किसी ने कुछ कहा तो न्यायिक अवमानना का खतरा। राष्ट्रपति संवैधानिक प्रमुख हैं, उनके खिलाफ बोले तो कई कानूनी मामले के लपेटे में आने का डर। किसी खास राजनीतिक दल या नेता के खिलाफ में अगर आपने आवाज उठायी तो सम्बन्धित दल या नेता के "भक्तगण" आप पर टूट पड़ेंगे और आपकी बोलती बन्द करा देंगे। संसद सदस्यों में से किसी की आत्मा अगर गलती से भी जग गयी और वह अपने दल या नेता के खिलाफ जुबान खोलने की हिम्मत की तो दल से निकाले जाने का खतरा था संसद की सदस्यता से हाथ धोने का डर के कारण उनकी आत्मा पुनः सो जाती है। 

अर्थात प्रजा को खौफ से खामोश कराया जाता है और भीष्म? वो तो हस्तिनापुर की गद्दी पर बैठे व्यक्ति की वफादारी के लिए संकल्पित है। अतः भीष्म खामोश रहेंगे ही चाहे फिर से एकबार महाभारत ही क्यों ना हो जाए।

राष्ट्रगान आए ना जिनको वो संसद के पहरेदार 
भारतवासी अब तो चेतो लोकतंत्र सचमुच बीमार 
                        
सादर 
श्यामल सुमन