Tuesday, August 23, 2022

अर्जित लोकतंत्र में नागरिक-बोध

अनगिनत बलिदानों और त्याग-तपस्या से अर्जित आज हमारा लोकतंत्र कहां खड़ा है? यह गम्भीर चिन्ता और चिन्तन का विषय है। आखिर समाज के हर तबके के इतने बड़े बड़े विद्वानों और अनुभवी लोगों द्वारा तैयार हमारे संविधान की मूल भावना को कानूनी दांव-पेंच की आड़ में बार बार क्यों घायल होना पड़ता है? क्या लोकतंत्र को अप्रासंगिक बनाने का कोई षड्यंत्र तो नहीं चलाया जा रहा है?

हमारे संविधान निर्माताओं ने लोकतंत्र के संरक्षण के लिए इसके अनेक अंगों को संविधान में स्वायत्तता प्रदान की है ताकि हर इकाई स्वतंत्र होकर देश / समाज हित में निर्णय ले सके। यदि कहीं से कोई गड़बड़ी की शिकायत मिलती है तो हमारी स्वतंत्र न्यायपालिका उस पर संविधान सम्मत फैसला सुनाती है जिसके अनुपालन करने / करवाने की जिम्मेवारी तत्कालीन कार्यपालिका की होती है। 

इन सबसे हटकर हमारे लोकतंत्र का चौथा स्तंभ पत्रकारिता (आज की भाषा में मीडिया) भी है जो लोकतंत्र के हर अंगों की निष्पक्ष पहरेदारी करते हुए सच को सामने लाता है ताकि लोकतंत्र सही मायने में स्वस्थ और जीवंत रह सके। 

लेकिन क्या आज यह आदर्श स्थिति है अपने देश में? क्या आज हमारा लोकतंत्र वही है जिसकी कल्पना हमारे संविधान निर्माताओं ने की थी? हम सबको बिना किसी दल के पिछलग्गू बने, एक नागरिक की हैसियत से अपने आप से यह सवाल शिद्दत से पूछना चाहिए। क्या हम सबका "नागरिक-बोध" दिन प्रतिदिन भोथरा होते जा रहा है? नहीं तो हमारे द्वारा चुने गए जनप्रतिनिधि अपने अपने हित के लिए जनहित को खुलेआम रौंद कैसे रहे हैं?

क्या हमारे देश में संवैधानिक संस्थाओं और संवैधानिक पदों की स्वायत्तता बची है? क्या न्यायिक प्रक्रिया में सब ठीक ठाक है? क्या मीडिया अपने दायित्वों को निष्पक्षता से निर्वहन कर रही है? आखिर ऐसी दुर्दशा कैसे हुई हमारे पूर्वजों द्वारा अर्जित लोकतंत्र की? 

तुलसी बाबा कहते हैं कि - कर्म प्रधान विश्व रचि राखा। 
जो जस करइ सो तस फल चाखा। और न्यूटन के गति का तीसरा नियम है कि - "प्रत्येक क्रिया के बराबर और विपरीत प्रतिक्रिया होती है" (Every action has its equal and opposite reaction)।

सच पूछिए तो इस तरह की सारी बातों का एक ही संदेश है। आज जो भी स्थिति है उसका बीजारोपण दशकों पहले की चुनी हुई सरकारों ने अपने अपने कार्यकाल में अपने अपने स्वार्थ के लिए अपने अपने तरीके से किया। चाहे संवैधानिक संस्थाओं / संवैधानिक पदों के दुरुपयोग का मामला हो या न्यायिक प्रक्रिया पर अंकुश का मामला हो या फिर मीडिया पर नियंत्रण करने का। यही तीनों लोकतंत्र की आत्मा है और इसे दूषित करने का पाप पूर्ववर्ती सरकारों ने भी किया।

फिर सरकारें आतीं गयीं और इन स्वतंत्र निकायों की आत्मा को अपने अपने ढंग से यत्र तत्र कुचलते रही बिना यह सोचे कि जो काम आज वो कर रहे हैं कल वही नजीर बनकर उन्हीं लोगों के खिलाफ भी इस्तेमाल हो सकता है क्योंकि यह लोकतंत्र है जहां सरकारें बदलतीं रहतीं हैं। और आज यही हो भी रहा है और वो बीज अंकुरित होकर, पौधा बनते हुए अब विशाल विषवृक्ष बनने को आतुर है।

आज जो राजनैतिक दल सरकारी क्रिया कलापों के खिलाफ आवाज उठा रहे हैं वो शायद अपने इतिहास को याद नहीं कर रहे हैं कि लोकतंत्र की मूल भावना के प्रति इन दुष्कर्मों की शुरुआत उन्हीं के दल के लोगों द्वारा की गई थीं। वर्तमान सरकारी महकमा को भी यह समझने की जरूरत है कि कल जब अभी के विपक्षी सत्तासीन होंगे तो यही सब बातें उनके खिलाफ जाएंगी। आखिर अंत कहां होगा? क्या लोकतंत्रीय व्यवस्था का पतन इसी तरह होता रहेगा? और हम देखते रहेंगे? कथमपि नहीं।

मानव सभ्यता के विकास-यात्रा के क्रम में अबतक ज्ञात तमाम शासन पद्धतियों में लोकतंत्र सर्वोपरि है। पूरी दुनिया में यह किसी भी लोकतांत्रिक व्यवस्था का दुर्भाग्य माना जाता है जब आमलोग न्यायिक प्रक्रिया और मीडिया को शक की दृष्टि से देखने लगे क्योंकि तुलसी बाबा कह गए हैं कि - सचिव वैद गुरु तीन जौं प्रिय बोलहिं भय आस। राज धर्म तन तीन कर होहिं बेगहिं नास।।

जब न्याय प्रणाली और मीडिया अपनी जिम्मेवारी का निर्वहन नहीं करता तो यह जिम्मेवारी स्वतः आम जनता के कंधे पर आ जाती है और जनता जनार्दन राजनैतिक दलों को सबक देते हुए सब ठीक कर देती है। लेकिन इसके लिए भी आमजनों को अपने अपने अन्दर अपने नागरिक-बोध को हमेशा जागरूक रखना होता है।

तो आईए मित्रों! बिना किसी दल का पिछलग्गू बने अपने अपने नागरिक होने के बोध को जाग्रत करें और देशभक्तों के बलिदान और त्याग-तपस्या से अर्जित इस लोकतंत्र को लोक-कल्याणकारी बनाने में अपना अपना योगदान दें ताकि यह सुन्दर देश और सुन्दर बने।
                            ---!! जय हिन्द !!---

Thursday, August 18, 2022

बंध्याकरण चालू आहे

----- दशकों पहले "हम दो, हमारे दो" जैसे लोकप्रिय नारे के साथ जनसंख्या नियंत्रण के लिए देश भर में सरकारी अभियान चलाया गया जिसका देश को लाभ भी मिला। 

----- मगर इमरजेंसी काल में जबरन बंध्याकरण की कई घटनाएं प्रकाश में आयीं और सरकार की फजीहत भी हुई और तत्कालीन सरकारी दल को सत्ता भी गंवानी पड़ी।

----- अभी ED, CBI आदि देश की स्वायत्त संस्थाओं का का बेजा इस्तेमाल करके वर्तमान सरकार के विरुद्ध उठनेवाली हर आवाज का बंध्याकरण खुलेआम किया जा रहा है और इसका सरकारी सदुपयोग भी विरोधी दलों की सरकारों गिराकर देश के संघीय ढांचे का भी बंध्याकरण जारी है। आम भारतवासी की नजरों तो कई बार न्यायिक प्रक्रिया भी इसी दायरे दिखाई देती है।

----- दशकों से लाखों परिवार को रोजगार देने वाली और देश को लगातार मजबूती प्रदान करनेवाली, और पूर्ववर्ती सरकारों द्वारा कठिन प्रयास से स्थापित सार्वजनिक संस्थाएं जैसे कोल, सेल, भेल, रेल, टेलिकॉम, एयरवेज, नवरत्न कम्पनियां आदि का "कुबेर-पुत्रों" के इशारे पर मनमर्जी से निजीकरण करके इसके बंध्याकरण की प्रक्रिया चालू है।

----- सत्ता के शीर्ष-गद्दी पर बैठे राजनैतिक दल के लोगों द्वारा उस दल के छुपे "एजेंडे" को अब डंके की चोट पर देश भर में लागू करने के लिए सरकारी कोशिशों से नयी शिक्षा प्रणाली के नाम पर बंध्याकरण किया जा रहा है जो खतरनाक है भविष्य के लिए। सरकारी स्कूलों और कॉलेजों का बंध्याकरण तो पहले ही किया जा चुका है।

----- इसी प्रकार सरकारी अस्पतालों में गरीब जनता को मुफ्त में मिलने वाली थोड़ी बहुत स्वास्थ्य सुविधाएं, कृषि प्रधान देश में किसानों को मिलने वाली कमोवेश सब्सिडी का भी नियमित बंध्याकरण चल ही रहा है।

----- सरकारी विज्ञापन और संरक्षण की लालच में हमारे लोकतंत्र का चौथा स्तंभ मीडिया भी आजकल सिर्फ "राग-सरकारी" ही गा रहा है जिससे आम भारतीयों की वैचारिकता का सामूहिक बंध्याकरण हो रहा है जो बेहद ख़तरनाक है हमारे देश के लोकतांत्रिक व्यवस्था के लिए। "वाट्सअप युनिवर्सिटी" की स्थापना के बाद लोगों के स्वतंत्र विचार और तेजी से मरने लगे हैं।

---- तो चलिए मित्रों इस बात की फ़िक्र किए बिना कि पड़ोस के श्रीलंका में क्या हुआ? मंहगाई डायन देश में और क्या क्या रूप दिखाएगी? बेरोज़गारी के "सुरसा-स्वरूप" से बिना डरे चाय की चुस्की के साथ हम सब मिलकर समेकित रूप से "राग-सरकारी" सुनें और "राग-दरबारी" गाएं क्योंकि सरकार विरोधी हर स्वर और आवाज को "देशद्रोह" की श्रेणी में रखा जा चुका है।

                    ----- सत्यमेव जयते -----