जाने-अनजाने हम सब कहीं न कहीं या तो किसी न किसी खास दल के समर्थक बने हुए हैं या फिर किसी मज़हब के। ऐसा लगता है कि देश के सियासी चक्रव्यूह में उलझकर हम सब एक सम्वेदनशील इन्सान के बदले सियासी दलों के लिए इस्तेमाल की एक वस्तु बनकर रह गए हैं।
शायद हम यह भूल गए हैं कि मानवता / मानव-धर्म /इन्सानियत हर धर्म, हर मजहब, हर दल से ऊपर है। बहुत ही खतरनाक वातावरण तैयार हो गया है हमारे आसपास जिसे हम या तो मदहोशी में देख नहीं पा रहे हैं या फिर "शुतुरमुर्ग" की तरह अपना सर छुपाने की कोशिश में हैं। क्या इससे आसन्न सामाजिक संकट टल जाएगाॽ
सोशल मीडिया पर एक से एक ज्ञानी उपस्थित हो गए हैं जिनकी भाषा अप्रत्याशित रूप से तल्ख है। किसी भी विषय पर सभ्य भाषा में तार्किक / सांकेतिक रूप से अपनी अभिव्यक्ति न देकर आपस में गाली-गलौज की भाषा आम हो गई है। बहुत पीड़ा होती है जब आज की पीढ़ी को इस तरह से "भाषाई-बम" के रूप में प्रयोग होते देखता हूँ क्योंकि ये "भाषाई-बम" तो परमाणु बम से भी खौफनाक और विनाशकारी है।
राष्ट्रवादी, गद्दार, सेक्यूलर, पाखण्डी आदि अनेक नकारात्मक संकेत के सर्टिफिकेट बहुत आसानी से दिए जाने का चलन-सा हो गया है। मजे की बात है कि तथाकथित राष्ट्रवादियों और धर्म-निरपेक्षता वादियों से क्रमशः "राष्ट्र" और "धर्म" की परिभाषा पूछने पर अक्सर वे बंगले झाँकने लगते हैं लेकिन अपना-अपना अनर्गल राग नहीं छोड़ते। मानो वो एक निर्जीव मशीन सा अपने आका के संकेत का इन्तजार कर रहे हों। इस अर्जित लोकतंत्र में अचानक "नागरिक" का "प्रजा" में रूपांतरण जोर शोर से होने लगा है।
रंगों का लोकप्रिय त्योहार होली सामने है। अनेक बार कई जगहों पर रंगों की होली के आसपास देश ने पहले खून की होली का दंश झेला है। भगवान करे इस साल और आगे भी सब शुभ-शुभ हो। लेकिन पता नहीं क्यों आमलोगों में स्वाभाविक रूप से अपने वर्तमान के साथ साथ अपने भविष्य और अगली पीढ़ी के भविष्य के प्रति आंतरिक स्तब्धता है, लोग खौफ में हैं कि आगे और क्या क्या होगाॽ आशंकित मन से हमारी सामूहिक प्रगति संभव नहीं।
दशकों से एक साहित्य-सेवी के रूप में यथासंभव क्रियाशील रहा हूँ, सौभाग्य से बड़े-बड़े स्थापित साहित्यकारों का सान्निध्य / स्नेहाशीष प्राप्त हुआ। होली के इस मौसम में अक्सर प्रेम / श्रृंगार की कविता लिखने का चलन पुराने काल से रहा है। इस वासंतिक वातावरण में मैं भी इसी परम्परा का हिस्सा बनकर प्रेम / मनुहार के गीत लिखा करता था लेकिन अब ऐसा नहीं कर पा रहा हूं क्योंकि "शमशान में शहनाई वादन" उचित नहीं माना जाता। खैर---
"सबको सन्मति दे भगवान"
सादर
श्यामल सुमन