Tuesday, December 20, 2022

भाषाई आतंकवाद

अभी के दौर में एक दूसरे का दोष निकालना, तल्ख लहजे में बतियाने का मानो फैशन हो गया है। सभी खुद को अच्छा और सामनेवाले को बुरा साबित करने में मानो अपने सारे तर्क, सारी शिष्टता और मर्यादाओं की सीमा पार करने में तनिक देरी नहीं करते हैं। इस तरह की बातचीत में आजकल साहचर्य से अधिक दुराव की भावना अधिक विद्यमान रहती हैं।

राजनैतिक दलों के नेता और उनके समर्थक एक दूसरे को सार्वजनिक सभा से लेकर टीवी चैनल पर गरमाते, चिल्लाते, एक दूसरे को धकियाते / गरियाते हुए आसानी से देखे जा सकते हैं। इस प्रकार के जीवों की संख्या आजकल बहुत बढ़ गयी है। मजे की बात है कि सभी दल खुद को जनता का सबसे बड़ा "हितैषी" बताते नहीं अघाते हैं जबकि इन्हीं राजनैतिक दलों की चालबाजी से आजतक सिर्फ आम जनता का ही नुकसान हुआ है। 

राजनीति से अलग जीवन के सभी क्षेत्र जैसे शिक्षा, पत्रकारिता, न्यायिक कार्यालय, सरकारी कार्यालय यहाँ तक कि सामाजिक, पारिवारिक रिश्तों में हम आप भाषा की इस गिरावट और आपसी तल्ख स्वभाव को आसानी से देख, सुन और महसूस सकते हैं। 

भाषा, संस्कृति की वाहिका होती है। अतः यह सिर्फ भाषायी गिरावट नहीं बल्कि सांस्कृतिक गिरावट भी है जो आनेवाली पीढ़ी के लिए एक अशुभ संकेत है। आखिर हम, आप कब चेतेंगे? 

हम कलमकार भी इस संक्रामक रोग की जद में खुलकर आते हुए दिखाई पड़ रहे हैं किसी एक समूह के पक्ष या विपक्ष में। जबकि कलमकार / संस्कृति कर्मी न तो पक्ष या विपक्ष का होता है बल्कि वह निष्पक्ष होता है। 

मेरा वैयक्तिक रुप से यह मानना है कि कलमकार हमेशा धारा के विपरीत नाव चलाता है। प्राचीन काल से आजतक एक सच्चा कलमकार तत्कालीन शासन व्यवस्था से लेखनी के माध्यम से लड़कर हमेशा सामाजिक पक्षधरता की बात करता है ताकि एक बेहतर सामाजिक परिवेश बन सके आनेवाली पीढ़ी के लिए और वस्तुतः यही उसका धर्म और नैतिक कर्तव्य भी है। 

मौलिक रूप से मैं काव्य जगत में सतत विचरनेवाला एक साधारण आदमी जब मन बहुत व्याकुल होता तो कभी कभी गद्यात्मक भावोद्गार के साथ उपस्थित होता हूँ।

अपना ही एक मतला और एक शेर कि -

वो घड़ी, हर घड़ी याद आती रहे 
गम भुलाकर जो खुशियाँ सजाती रहे

जिन्दगी से अगरबत्तियों ने कहा 
राख बनकर तू खुशबू लुटाती रहे 

Monday, December 19, 2022

मुक्त-छंद और छंद-मुक्त कविता

शीर्षक के अनुसार कभी एक कविता पोस्ट किया था। कुछ मित्रों के प्रश्नों के समाधान हेतु अपना पक्ष रखते हुए मुझे एक लम्बी टिपण्णी लिखनी पडी। बाद में मित्रों के आग्रह को स्वीकार करते हुए उसी टिपण्णी को मामूली संशोधन के साथ पोस्ट कर रहा हूँ आपके अवलोकन और विचार हेतु।

मैं अपनी समझ से अपनी बात रखने की चेष्टा करता हूँ जिससे सहमत / असहमत होना पूर्णतः पाठक मित्रों की इच्छा पर है। असहमत होने पर भी मुझे कोई दुख नहीं होगा। मैं यह भी विनम्रता सै स्वीकार करता हूँ कि मुझसे अच्छे और सटीक विचार आ सकते हैं जिसे मैं भी सहर्ष स्वीकार करूँगा।

जब भी कहीं "मुक्त छंद की बात होती है अक्सर लोग एक बडा नाम निराला का उदाहरण सामने रख देते हैं। निराला की एक मुक्त छंद की कविता (शायद इस तरह की पहली चर्चित) सामने आती है कि - 

वो आता
दो टूक कलेजे के करता
पछताता
पथ पर जाता ------

यदि इस रचना पर हम गौर करें / इसे लय से पढ़ें तो हम स्वाभाविक रूप से पाते हैं कि इसमें छंद / लय तो है पर यह एक स्थापित "छंद विधान" से मुक्त है।

हमारे साहित्य में दोहा, चौपाई, सोरठा, कुण्डली आदि अनेकानेक स्थापित छंद हैं जिसमें निश्चित मात्रा / विधान तय किए हुए हैं और उस छंद को लिखने के लिए उससे बाहर जाने की अनुमति हमारे शास्त्रज्ञ नहीं देते।

समय के साथ यह भी महसूस किया जाने लगा कि हर समय, हर बात, हर घटना को स्थापित छंदों के नियमो का पालन करते हुए कहना कई बार मुश्किल होता है। किंचित इसी कठिनाई के समाधान के रूप में ऐसी कविता आयी, फली फूली और विकसित भी हुई। कालक्रम में इस प्रकार की कविता की विकास याात्रा बढ़ती रही और कई अत्यंत महत्वपूर्ण कविताएँ सामने भी आयीं जिसकी स्वीकार्यता बढ़ती गयी।

हर विकास यात्रा की तरह इस विकास यात्रा में सकारात्मक पक्ष के अलावा नकारात्मक पक्ष का भी विकास होता रहा है और "मुक्त छंद" के बदले "छंद मुक्त" कविता लिखी जाने लगी जो आजकल तो धड़ल्ले से लिखी जा रही है और कई लोग तो इसे "गद्य कविता" तक कह जाते हैं।

"छंद मुक्त" कविता में हमने उस कविता को छंद / लय/ रिदम से पूरी तरह से मुक्त करना शुरू कर दिया जो "मुक्त छंद" के विकास के कारण छंद विधान से पहले से ही मुक्त हो चुकी थी। परिणाम स्वरूप कविता अलोकप्रिय होने लगी या दूसरे शब्दों में कहें तो कविता मरने लगी। जिन्हें "छंद मुक्त" कविता लिखना है उनके लिए "गद्य लेखन" का सहारा लेना ही श्रेयष्कर है क्योंकि गद्य लेखन का फलक भी बहुत विस्तृत है।

कविता का जुड़ाव सीधे तौर पर प्रकृति के साथ है। प्रकृति में नदियों की धारा के कलकल का स्वर हो या पत्तों के हिलने से होनेवाली आवाज, या चिड़ियों का कलरव या फिर कुछ और हर स्वर / हर आवाज में एक रिदम / एक ताल / एक लयबद्धता हम आसानी से महसूस कर सकते हैं। यहाँ तक कि गहरी नींद में सोये हुए इन्सान की साँसों तक में एक लयबद्धता है और कविता में छंद एवं छंदबद्धता इन्हीं प्राकृतिक हलचल गहराई से जुड़ी है। या यूँ कहें कि छंद कविता की आत्मा है।

अर्थात कविता का मौलिक उत्स यही प्राकृतिक गतिविधियों से जुडी छंदबद्धता से ही है। अतः जब जब कविता छंद विहीन होगी तब तब कविता कमजोर होगी / मरेगी। अतः कविता और छंद के जुडाव को बनाए रखें ताकि कविता बढ़ती रहे अपनी नैसर्गिक सुन्दरता के साथ अनवरत - लगातार।

Saturday, December 17, 2022

बहुत खतरनाक है भीष्म की खामोशी

द्रोपदी से भी बदतर स्थिति में है भारतीय लोकतंत्र के मंदिर संसद का जिसका चीरहरण बदस्तूर जारी है। द्रोपदी का चीरहरण एक बार हुआ था पर संसद का दशकों से बार बार हो रहा है। द्रोपदी चीरहरण को देखने वाले सिर्फ हस्तिनापुर के राज दरबार के लोग थे पर संसद के चीरहरण को हस्तिनापुर के साथ साथ पूरी दुनिया बार बार देख रही है। भीष्म तब भी खामोश थे और भीष्म आज भी खामोश हैं। इतिहास साक्षी है कि भीष्म की खामोशी महाभारत जैसे विनाशकारी युद्ध को आमंत्रित करती है।

भीष्म कोई खास व्यक्ति नहीं बल्कि वो प्रतीक है शक्ति सम्पन्न संवैधानिक प्रमुख का जिसने शायद पहले की तरह हस्तिनापुर के सिंहासन पर बैठे व्यक्ति की वफादारी का संकल्प ले रखा है। कमोबेश द्वापर जैसी स्थिति आज भी है। अन्तर बस इतना है कि द्वापर में प्रजा चुपके चुपके अपने अपने ढंग से शासकीय कृत्य की चर्चा किया करती थी पर आज प्रजा चीख रही लेकिन उस चीख को आज के बिकाऊ मीडिया के भोंपू से प्रयास पूर्वक दबाया जा रहा है।

प्रजा को खौफ में रखने का चलन शुरू से है। प्रजा कल भी खौफ में थी और आज भी खौफ में ही है। न्यायिक प्रक्रिया में घोर भ्रष्टाचार है, न्यायाधीश तक को "मैनेज" करके मनमाफिक जजमेंट करवाये जाने के कई मामले प्रकाश में आते रहे हैं। फिर भी अगर न्यायालय के खिलाफ किसी ने कुछ कहा तो न्यायिक अवमानना का खतरा। राष्ट्रपति संवैधानिक प्रमुख हैं, उनके खिलाफ बोले तो कई कानूनी मामले के लपेटे में आने का डर। किसी खास राजनीतिक दल या नेता के खिलाफ में अगर आपने आवाज उठायी तो सम्बन्धित दल या नेता के "भक्तगण" आप पर टूट पड़ेंगे और आपकी बोलती बन्द करा देंगे। संसद सदस्यों में से किसी की आत्मा अगर गलती से भी जग गयी और वह अपने दल या नेता के खिलाफ जुबान खोलने की हिम्मत की तो दल से निकाले जाने का खतरा था संसद की सदस्यता से हाथ धोने का डर के कारण उनकी आत्मा पुनः सो जाती है। 

अर्थात प्रजा को खौफ से खामोश कराया जाता है और भीष्म? वो तो हस्तिनापुर की गद्दी पर बैठे व्यक्ति की वफादारी के लिए संकल्पित है। अतः भीष्म खामोश रहेंगे ही चाहे फिर से एकबार महाभारत ही क्यों ना हो जाए।

राष्ट्रगान आए ना जिनको वो संसद के पहरेदार 
भारतवासी अब तो चेतो लोकतंत्र सचमुच बीमार 
                        
सादर 
श्यामल सुमन

Monday, September 26, 2022

बिना मुस्कान के कैसा इन्सान?

हमारी मुस्कान ही हमें मुकम्मल इन्सान बनाती है। इन्सान के अलावा शायद और किसी जीव को सामान्यतया हँसते नहीं देखा गया है। जीवनयापन के क्रम में हजारों हजार जद्दोजहद के बीच हमारी मुस्कुराहट हमें नयी उर्जा देती है लेकिन पता नहीं क्यों और कैसे आजकल हम भूल गए हैं अपनी सहज मुस्कान को?

इत्तेफाक से मैं करीब 22 सालों तक एक ऐसे मकान का निवासी रहा जो एक भीड़भाड़ वाले बाजार के बीच था जहाँ वक्त मिलने पर मैं अपने गेट पर अक्सर बैठकर आते जाते अनजाने लोगों में सहज और स्वाभाविक मुस्कान की तलाश में उन चेहरों को बहुत गौर से देखा करता था लेकिन अफसोस! मुझे अधिकतर लोगों के चेहरे पर परेशानी, तनाव के ही दर्शन हुए। इसी भीड़ में अगर कुछ परिचितों से नजरें मिलीं तो औपचारिकतावश वे जबरन अपने होंठों पर मुस्कान लाने में भी सफल हुए जिस प्रकार रिशेप्शन पर बैठे लोगों द्वारा ग्राहकों के सामने "व्यावसायिक मुस्कान" सायस उत्पन्न की जाती है। हाँ ! हजारों चेहरे में कभी कभी एकाध चेहरे अनायास सहज भी दिखे। आखिर क्यों और कहाँ खो गयी है हमारी मुस्कान? जबकि हम जानते हैं कि बिना मुस्कान के कैसा इन्सान?

हम सबके जीवन में अक्सर हम अपने अपने स्तर पर पाते हैं कि "सुख की पोटली" बहुत छोटी है और "दुख का बोझ" बहुत बड़ा है। मनोवैज्ञानिक दृष्टि से भी अक्सर हमें अपना दुख और दूसरे का सुख बड़ा दिखता है जबकि हकीकत यह है कि सबकी परेशानी का अपना अपना सबब है, उसके अलग प्रभाव, उससे निबटने के अपने अपने तरीके और संसाधन हैं लेकिन हर हाल में जीवन के हर संघर्ष में हमारा हौसला ही हमारा सच्चा साथी साबित होता है और हम सब हौसला-रूपी अपने इस परममित्र से जाने अनजाने लगातार दूर क्यों होते जा रहे हैं? कभी कहीं सुना था कि -

बोझ गर होता गमों का तो उठा लेते
जिन्दगी बोझ बनी है तो उठाएं कैसे

लेकिन नहीं मित्रों! मेरी दृष्टि में जिन्दगी बोझ नहीं बल्कि खुदा की नेमत है जिसे हमें अपने श्रम, संघर्ष से उसे और बेहतर बनाने हेतु आजीवन प्रयास करते रहना होगा ताकि आनेवाली पीढ़ी भी हमसे सीखकर संघर्ष की इस विरासत को लेकर आगे का जीवन सफर सफलतापूर्वक तय कर सके। अपनी बहुत पुरानी पंक्तियां याद आयीं कि - 

संघर्ष न किया तो धिक्कार जिन्दगी है
काँटों का सेज फिर भी स्वीकार जिन्दगी है

तो चलिए मित्रों! जीवन के हजारों हजार संघर्षों के बीच, अपने लिए, अपनी आनेवाली पीढ़ी के लिए, समाज, देश, दुनिया में सबके साथ मिलकर जीने के लिए हौसले के साथ हम अपनी मुस्कान को लौटाने की कोशिश करके एक मुकम्मल इन्सान बनने की दिशा में अपना अपना कदम बढ़ाएं। सिर्फ "मुस्कान" शब्द को केन्द्रित करके बहुत पहले कुछ दोहों का सृजन मेरे द्वारा हुआ था उसी के साथ आज विराम लेता हूं कि -

दोनों में अन्तर बहुत, आंखों से पहचान।
स्वाभाविक मुस्कान या, व्यवसायिक मुस्कान।।

जीवन वह जीवन्त है, जहाँ नहीं अभिमान।
सुख दुख से लड़ते मगर, चेहरे पर मुस्कान।।

ज्ञान किताबी ही नहीं, व्यवहारिक हो ज्ञान।
छले गए विद्वान भी, मीठी जब मुस्कान।।

अपनापन या है जहर, हो इसकी पहचान।
दर्द, प्रेम या और कुछ, क्या कहती मुस्कान।।

क्या किसका कब रूप है, होश रहे औ ध्यान।
घातक या फिर प्रेमवश, या कातिल मुस्कान।।

कभी जरूरत है कभी, मजबूरी श्रीमान।
प्रायोजित होती जहाँ, लज्जित है मुस्कान।।

जीव सभी हँसते कहाँ, आदम को वरदान।
हृदय सुमन का वास तब, स्वाभाविक मुस्कान।।

संसद और हम

दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र यानि भारत के बारे में अक्सर कहा जाता है कि यह देश संविधान से चलता है और यह सैद्धांतिक रूप से सही भी है। जिस प्रकार देश में कार्यपालिका के संवैधानिक प्रमुख राष्ट्रपति होते हैं और व्यवहारिक प्रमुख प्रधानमंत्री। ठीक उसी तरह संविधान तो सबसे ऊपर है ही पर व्यवहारिक संवैधानिक शक्ति हमारे देश के संसद के पास है जिसका प्रमाण है अबतक संसद द्वारा शताधिक संविधान संशोधन। संसद हमारी लोकतन्त्रीय व्यवस्था के लिए रीढ़ के समान है। इसे लोकतंत्र का मंदिर भी कहा जाता है। संसद के दायरे में संसद के अतिरिक्त विधान सभाओं को भी देखने / समझने की जरूरत है। पर उस संसद की स्थिति आज क्या है? हम सब जानते हैं। तब मेरे जैसे कलमकार को कहना पड़ता है कि -

जहाँ पर देश की बातें सुजन करते हैं वो संसद 
विरोधों में भी शिष्टाचार की पहचान है संसद 
कई दशकों के अनुभव से क्यूँ हमने ये नहीँ सीखा 
अशिष्टों की लड़ाई का अखाड़ा बन गया संसद 

सत्तर के दशक से आजतक करीब करीब सभी दलों की कहानी यही रही कि सबने पहले अपराधी का राजनीतिकरण किया और बाद में राजनीति का अपराधीकरण करने में अपने अपने स्तर से योगदान दिया। कभी किसी समाजशास्त्री ने कहा था कि "प्रजातंत्र मूर्खों का शासन है" और आजकल हमारे सांसदों के व्यवहार ने इसे साबित भी कर दिया है। तब लेखनी स्वतः कहती है कि -
  
राष्ट्रगान आए ना जिनको, वो संसद के पहरेदार 
भारतवासी अब तो चेतो, लोकतंत्र सचमुच बीमार

कहने को जनता का शासन लेकिन जनता दूर बहुत 
रोटी, पानी खातिर तन को बेच रहे, मजबूर बहुत 
फिर कैसे उस "गोत्र-मूल" के लोग ही संसद जाते हैं 
हर चुनाव में नम्र भाव फिर दिखते हैं मगरूर बहुत 
प्रजातंत्र मूर्खों का शासन कथन हुआ बिल्कुल साकार 
भारतवासी अब तो चेतो लोकतंत्र सचमुच बीमार 

संसद में होनेवाली अभद्रता, मनमानी, वैचारिक बहस से दूर "बायकाट" या कार्यवाही ना चलने देना आदि आदि से लेकर सदस्यों के वेतन / भत्ता / सुविधा बढ़ोतरी वाले विधेयक को पास कराने में सारे सदस्यों की चट्टानी एकता आदि को समान रूप से बार बार देखने के पश्चात एक सम्वेदनशील हृदय ये बात स्वतः निकलती है कि - 

देशभक्ति जनहित की बातें सब करते हैं संसद में 
अपने अपने स्वारथ में वो नित लड़ते हैं संसद में 
मरी जनता बेचारी! खेल तू संसद संसद! ! 

अक्सर जो चुनकर जाते हैं लोगों संग आघात किया 
नाम वही सुर्खी में यारों जो जितना अपराध किया 
रोज बढ़ती बेकारी! खेल तू संसद संसद! ! 

फिर ऐसे निर्मम खेल से आहत होकर मन क्रोधित होकर कह उठता है कि - 

कोई सुनता नहीँ मेरी तो गा कर फिर सुनाऊँ क्या 
सभी मदहोश अपने में तमाशा कर दिखाऊँ क्या 
बहुत पहले भगत ने कर दिखाया था जो संसद में 
ये सत्ता हो गयी बहरी धमाका कर दिखाऊँ क्या 

लेकिन सत्य अहिंसा की इस धरती पर धमाका स्वीकार्य नहीँ। असल धमाका तो तब होगा जब हम अपने लोकतन्त्रीय अधिकार यानि मतदान की कीमत को सही अर्थों में समझकर बहादुरी से सिर्फ नेक लोगों को संसद भेज पाने में सफल होंगे। एक जागा हुआ देशवासी यह आह्वान करता है कि - 

शासन का मंदिर है संसद क्यों लगता लाचार 
कुछ जनहित पर भाषण दे कर स्वारथ का व्यापार 
रंगे सियारों को पहचाने बदला जिसने वेष 
कागा! ले जा यह संदेश! घर घर दे जा यह संदेश!!

और अन्त में दोस्तों - 

धरा के गीत गाते हैं, गगन के गीत गाते हैं 
शहीदों की चिताओं पर नमन के गीत गाते हैं 
सुमन सारे सहजता से खिलेंगे जब मेरे यारा 
चमन के तब सुमन मिलके वतन के गीत गाते हैं 

अब TRP का जवाब TRP से

सारा खेल TRP का है साहिब। नहीं तो क्या कारण है जो अपने आपको स्वयं से राष्ट्रीय चैनल घोषित करनेवाले दलाल मीडिया द्वारा महीनों, वर्षों से लगभग हर दिन हिन्दू, मुस्लिम, पाकिस्तान, राम मंदिर, ज्ञानवापी, मथुरा आदि के साथ साथ अनेक गैर जरूरी मुद्दों पर खबरों को ही परोस रहा है जबकि देश में कोरोना के गम्भीर संकट से उपजी समस्याएं, मँहगाई, बेरोजगारी, बच्चों की पढ़ाई, किसानों की समस्यायें आदि से देश बुरी तरह से जूझ रहा है। 

मैं ये कभी नहीं कहता कि रिया, सुशांत, ड्रगवाली या और अन्य खबरों को जगह नहीं मिले। अवश्य मिले। लेकिन ये खबरें लगातार 90 दिनों से ऊपर, दिन रात दिखानेवाली खबर तो कम से कम नहीं है। और भी ग़म हैं ज़माने में मुहब्बत के सिवा।

यह भी सच है कि हर चैनल के सम्पादक का अधिकार है कि वो अपने अपने तरीके से अपने समाचार का एजेंडा तय करे खबरों की विविधता और विश्वसनीयता से उसका खबर-व्यापार और बढ़ता है। व्यापार का पैमाना हरएक चैनल के अपने अपने TRP  (Television Rating Points) होता है और इसी TRP के चक्कर में ये तथाकथित राष्ट्रीय चैनल वालों ने पूरे राष्ट्र को छोड़कर कुछ खास मुद्दे को बार बार / लगातार उठाकर देश की अन्य ज्वलन्त समस्या और उसके समाधान से आमलोगों के ध्यान को हटाने का "अपराध"  किया है। उसे अपने मीडिया-धर्म और जन- सरोकारों से कोई मतलब नहीं। बस किसी तरह TRP चाहिए।

हे भारत के सम्मानित और पीड़ित नागरिकों! जरा एकान्त में स्थिर और सजग बुद्धि से जरूर सोचिएगा कि कहीं आपके "नागरिक-बोध" को खतम करके उसे धीरे धीरे "प्रजा-भाव"  में रूपांतरित करने की साज़िश तो नहीं चल रही है? 

जब समाचार चैनलों को अपने TRP के लिए अपना अपना एजेंडा तय करने का अधिकार है तो फिर क्या हम सभी आम नागरिकों को अपना TRP  (Total Reject Plan) का अधिकार भी नहीं? क्योंकि हमारे / आपके द्वारा जब इन खबरों देखा जाता है तो इन गैर जिम्मेवार चैनलों का TRP बढ़ता है और उन्हें विज्ञापन मिलता है। यदि इन समाचार चैनलों को आम जनता की चिंता नहीं तो हम उनकी चिंता क्यूं करें?  उन्हें क्यों देखें और सुनें?

यदि अपने देश, अपने लोकतंत्र, अपने गांव / शहर, अपनी संतानों और अपने अपने भविष्य के प्रति आपके भीतर कुछ भी कर्त्तव्य-बोध और चिंता है तो इन गैर जिम्मेवार चैनलों के देखना बन्द करिए और इसके TRP को गिराकर अपना TRP तत्काल लागू कीजिए वरना बहुत कुछ संकट में आने वाला है। मैंने तो टीवी पर समाचार देखना लगभग बंद कर दिया है। 

बहुत पहले लिखे अपने एक मुक्तक (जो कि आज सच होता दिख रहा है) से अपनी बात समाप्त करते हुए जन-सरोकारों से बेखबर इन समाचारवालों को आगाह करना चाहता हूं कि -

समाचार व्यापार बने न 
कहीं झूठ आधार बने न
सुमन सम्भालो मर्यादा को
नूतन   दावेदार   बने  न

सचमुच नूतन दावेदार के रूप में अनेक सोशल मीडिया हमारे सामने आज सक्रिय हैं। तो फिर भाइयों / बहनों / युवाओं - खतम कीजिए इन गैर जिम्मेवार चैनलों की TRP  और तत्काल लागू कीजिए अपनी TRP - जय हिन्द।

Friday, September 9, 2022

जिन्दा लाशों की बस्ती से

खुद से देखो उड़ के यार
अहसासों से जुड़ के यार
जैसे गूंगे स्वाद समझते
कह ना पाते गुड़ के यार

प्रकृति ने जिन्हें गूंगा बना दिया है उनकी भावनाओं की अभिव्यक्ति की विवशता को समझा जा सकता है। वे अपने दैहिक / प्राकृतिक कारणों से अगर कुछ नहीं बोल पाते हैं तो उन्हें दोष नहीं दिया जा सकता।

लेकिन किसी न किसी वजह से हम सभी या तो गूंगे बन गए हैं या बनाए गए हैं और कुछ "ढीठ लोग", जो आज भी आवाज उठाने के लिए लगातार आवाज दे रहे हैं, को लगातार गूंगा बनाने की कोशिश जारी है ताकि ऐसा लगे कि अपने यहां सिर्फ सुख-शांति ही है।

शरीर का शांत होना मृत्यु का संकेत है। सब कुछ सामान्य हो तो लोगों का शांत रहना यथेष्ठ सुख-सुविधा और ज्ञान का परिचायक है लेकिन असामान्य स्थिति में भी शांत या चुप रहना हमारे जीते जी मरने की निशानी है। 

जीने खातिर जो हम सबकी बुनियादी जरूरतें हैं अगर वो भी हमसे नित्य दूर होती जाए जबकि हम सब यथोचित श्रम करके उसे हर हाल में हासिल करने के लिए शिद्दत से तलबगार भी हैं। फिर भी चारों तरफ चुप्पी ही चुप्पी है। "मीडिया स्टंट" की चकाचौंध भरी आभासी दुनिया से निकलकर अपने आसपास की हकीकत की दुनिया में छायी खामोशी को महसूस करिए मेरे प्रिय भरतवंशियों!

महामारी का बढ़ता प्रकोप, बेरोजगारी, भूखमरी, कुपोषण, रोज घटते रोजगार, आत्महत्या करने को विवश लोगों को जब शिक्षा, इलाज में भी परेशानी होने पर भी लोग अगर चारों तरफ चुप्पी साधे रहें तो यह दो बातों का संकेत हो सकता है। #पहला - यह कि हम सब वैचारिक रूप से मर चुके हैं और #दूसरा - तूफान आने के पूर्व की शांति।

अब आप स्वयं तय करें कि आखिर ये चुप्पी क्यों?

Tuesday, August 23, 2022

अर्जित लोकतंत्र में नागरिक-बोध

अनगिनत बलिदानों और त्याग-तपस्या से अर्जित आज हमारा लोकतंत्र कहां खड़ा है? यह गम्भीर चिन्ता और चिन्तन का विषय है। आखिर समाज के हर तबके के इतने बड़े बड़े विद्वानों और अनुभवी लोगों द्वारा तैयार हमारे संविधान की मूल भावना को कानूनी दांव-पेंच की आड़ में बार बार क्यों घायल होना पड़ता है? क्या लोकतंत्र को अप्रासंगिक बनाने का कोई षड्यंत्र तो नहीं चलाया जा रहा है?

हमारे संविधान निर्माताओं ने लोकतंत्र के संरक्षण के लिए इसके अनेक अंगों को संविधान में स्वायत्तता प्रदान की है ताकि हर इकाई स्वतंत्र होकर देश / समाज हित में निर्णय ले सके। यदि कहीं से कोई गड़बड़ी की शिकायत मिलती है तो हमारी स्वतंत्र न्यायपालिका उस पर संविधान सम्मत फैसला सुनाती है जिसके अनुपालन करने / करवाने की जिम्मेवारी तत्कालीन कार्यपालिका की होती है। 

इन सबसे हटकर हमारे लोकतंत्र का चौथा स्तंभ पत्रकारिता (आज की भाषा में मीडिया) भी है जो लोकतंत्र के हर अंगों की निष्पक्ष पहरेदारी करते हुए सच को सामने लाता है ताकि लोकतंत्र सही मायने में स्वस्थ और जीवंत रह सके। 

लेकिन क्या आज यह आदर्श स्थिति है अपने देश में? क्या आज हमारा लोकतंत्र वही है जिसकी कल्पना हमारे संविधान निर्माताओं ने की थी? हम सबको बिना किसी दल के पिछलग्गू बने, एक नागरिक की हैसियत से अपने आप से यह सवाल शिद्दत से पूछना चाहिए। क्या हम सबका "नागरिक-बोध" दिन प्रतिदिन भोथरा होते जा रहा है? नहीं तो हमारे द्वारा चुने गए जनप्रतिनिधि अपने अपने हित के लिए जनहित को खुलेआम रौंद कैसे रहे हैं?

क्या हमारे देश में संवैधानिक संस्थाओं और संवैधानिक पदों की स्वायत्तता बची है? क्या न्यायिक प्रक्रिया में सब ठीक ठाक है? क्या मीडिया अपने दायित्वों को निष्पक्षता से निर्वहन कर रही है? आखिर ऐसी दुर्दशा कैसे हुई हमारे पूर्वजों द्वारा अर्जित लोकतंत्र की? 

तुलसी बाबा कहते हैं कि - कर्म प्रधान विश्व रचि राखा। 
जो जस करइ सो तस फल चाखा। और न्यूटन के गति का तीसरा नियम है कि - "प्रत्येक क्रिया के बराबर और विपरीत प्रतिक्रिया होती है" (Every action has its equal and opposite reaction)।

सच पूछिए तो इस तरह की सारी बातों का एक ही संदेश है। आज जो भी स्थिति है उसका बीजारोपण दशकों पहले की चुनी हुई सरकारों ने अपने अपने कार्यकाल में अपने अपने स्वार्थ के लिए अपने अपने तरीके से किया। चाहे संवैधानिक संस्थाओं / संवैधानिक पदों के दुरुपयोग का मामला हो या न्यायिक प्रक्रिया पर अंकुश का मामला हो या फिर मीडिया पर नियंत्रण करने का। यही तीनों लोकतंत्र की आत्मा है और इसे दूषित करने का पाप पूर्ववर्ती सरकारों ने भी किया।

फिर सरकारें आतीं गयीं और इन स्वतंत्र निकायों की आत्मा को अपने अपने ढंग से यत्र तत्र कुचलते रही बिना यह सोचे कि जो काम आज वो कर रहे हैं कल वही नजीर बनकर उन्हीं लोगों के खिलाफ भी इस्तेमाल हो सकता है क्योंकि यह लोकतंत्र है जहां सरकारें बदलतीं रहतीं हैं। और आज यही हो भी रहा है और वो बीज अंकुरित होकर, पौधा बनते हुए अब विशाल विषवृक्ष बनने को आतुर है।

आज जो राजनैतिक दल सरकारी क्रिया कलापों के खिलाफ आवाज उठा रहे हैं वो शायद अपने इतिहास को याद नहीं कर रहे हैं कि लोकतंत्र की मूल भावना के प्रति इन दुष्कर्मों की शुरुआत उन्हीं के दल के लोगों द्वारा की गई थीं। वर्तमान सरकारी महकमा को भी यह समझने की जरूरत है कि कल जब अभी के विपक्षी सत्तासीन होंगे तो यही सब बातें उनके खिलाफ जाएंगी। आखिर अंत कहां होगा? क्या लोकतंत्रीय व्यवस्था का पतन इसी तरह होता रहेगा? और हम देखते रहेंगे? कथमपि नहीं।

मानव सभ्यता के विकास-यात्रा के क्रम में अबतक ज्ञात तमाम शासन पद्धतियों में लोकतंत्र सर्वोपरि है। पूरी दुनिया में यह किसी भी लोकतांत्रिक व्यवस्था का दुर्भाग्य माना जाता है जब आमलोग न्यायिक प्रक्रिया और मीडिया को शक की दृष्टि से देखने लगे क्योंकि तुलसी बाबा कह गए हैं कि - सचिव वैद गुरु तीन जौं प्रिय बोलहिं भय आस। राज धर्म तन तीन कर होहिं बेगहिं नास।।

जब न्याय प्रणाली और मीडिया अपनी जिम्मेवारी का निर्वहन नहीं करता तो यह जिम्मेवारी स्वतः आम जनता के कंधे पर आ जाती है और जनता जनार्दन राजनैतिक दलों को सबक देते हुए सब ठीक कर देती है। लेकिन इसके लिए भी आमजनों को अपने अपने अन्दर अपने नागरिक-बोध को हमेशा जागरूक रखना होता है।

तो आईए मित्रों! बिना किसी दल का पिछलग्गू बने अपने अपने नागरिक होने के बोध को जाग्रत करें और देशभक्तों के बलिदान और त्याग-तपस्या से अर्जित इस लोकतंत्र को लोक-कल्याणकारी बनाने में अपना अपना योगदान दें ताकि यह सुन्दर देश और सुन्दर बने।
                            ---!! जय हिन्द !!---

Thursday, August 18, 2022

बंध्याकरण चालू आहे

----- दशकों पहले "हम दो, हमारे दो" जैसे लोकप्रिय नारे के साथ जनसंख्या नियंत्रण के लिए देश भर में सरकारी अभियान चलाया गया जिसका देश को लाभ भी मिला। 

----- मगर इमरजेंसी काल में जबरन बंध्याकरण की कई घटनाएं प्रकाश में आयीं और सरकार की फजीहत भी हुई और तत्कालीन सरकारी दल को सत्ता भी गंवानी पड़ी।

----- अभी ED, CBI आदि देश की स्वायत्त संस्थाओं का का बेजा इस्तेमाल करके वर्तमान सरकार के विरुद्ध उठनेवाली हर आवाज का बंध्याकरण खुलेआम किया जा रहा है और इसका सरकारी सदुपयोग भी विरोधी दलों की सरकारों गिराकर देश के संघीय ढांचे का भी बंध्याकरण जारी है। आम भारतवासी की नजरों तो कई बार न्यायिक प्रक्रिया भी इसी दायरे दिखाई देती है।

----- दशकों से लाखों परिवार को रोजगार देने वाली और देश को लगातार मजबूती प्रदान करनेवाली, और पूर्ववर्ती सरकारों द्वारा कठिन प्रयास से स्थापित सार्वजनिक संस्थाएं जैसे कोल, सेल, भेल, रेल, टेलिकॉम, एयरवेज, नवरत्न कम्पनियां आदि का "कुबेर-पुत्रों" के इशारे पर मनमर्जी से निजीकरण करके इसके बंध्याकरण की प्रक्रिया चालू है।

----- सत्ता के शीर्ष-गद्दी पर बैठे राजनैतिक दल के लोगों द्वारा उस दल के छुपे "एजेंडे" को अब डंके की चोट पर देश भर में लागू करने के लिए सरकारी कोशिशों से नयी शिक्षा प्रणाली के नाम पर बंध्याकरण किया जा रहा है जो खतरनाक है भविष्य के लिए। सरकारी स्कूलों और कॉलेजों का बंध्याकरण तो पहले ही किया जा चुका है।

----- इसी प्रकार सरकारी अस्पतालों में गरीब जनता को मुफ्त में मिलने वाली थोड़ी बहुत स्वास्थ्य सुविधाएं, कृषि प्रधान देश में किसानों को मिलने वाली कमोवेश सब्सिडी का भी नियमित बंध्याकरण चल ही रहा है।

----- सरकारी विज्ञापन और संरक्षण की लालच में हमारे लोकतंत्र का चौथा स्तंभ मीडिया भी आजकल सिर्फ "राग-सरकारी" ही गा रहा है जिससे आम भारतीयों की वैचारिकता का सामूहिक बंध्याकरण हो रहा है जो बेहद ख़तरनाक है हमारे देश के लोकतांत्रिक व्यवस्था के लिए। "वाट्सअप युनिवर्सिटी" की स्थापना के बाद लोगों के स्वतंत्र विचार और तेजी से मरने लगे हैं।

---- तो चलिए मित्रों इस बात की फ़िक्र किए बिना कि पड़ोस के श्रीलंका में क्या हुआ? मंहगाई डायन देश में और क्या क्या रूप दिखाएगी? बेरोज़गारी के "सुरसा-स्वरूप" से बिना डरे चाय की चुस्की के साथ हम सब मिलकर समेकित रूप से "राग-सरकारी" सुनें और "राग-दरबारी" गाएं क्योंकि सरकार विरोधी हर स्वर और आवाज को "देशद्रोह" की श्रेणी में रखा जा चुका है।

                    ----- सत्यमेव जयते -----