Friday, September 9, 2022

जिन्दा लाशों की बस्ती से

खुद से देखो उड़ के यार
अहसासों से जुड़ के यार
जैसे गूंगे स्वाद समझते
कह ना पाते गुड़ के यार

प्रकृति ने जिन्हें गूंगा बना दिया है उनकी भावनाओं की अभिव्यक्ति की विवशता को समझा जा सकता है। वे अपने दैहिक / प्राकृतिक कारणों से अगर कुछ नहीं बोल पाते हैं तो उन्हें दोष नहीं दिया जा सकता।

लेकिन किसी न किसी वजह से हम सभी या तो गूंगे बन गए हैं या बनाए गए हैं और कुछ "ढीठ लोग", जो आज भी आवाज उठाने के लिए लगातार आवाज दे रहे हैं, को लगातार गूंगा बनाने की कोशिश जारी है ताकि ऐसा लगे कि अपने यहां सिर्फ सुख-शांति ही है।

शरीर का शांत होना मृत्यु का संकेत है। सब कुछ सामान्य हो तो लोगों का शांत रहना यथेष्ठ सुख-सुविधा और ज्ञान का परिचायक है लेकिन असामान्य स्थिति में भी शांत या चुप रहना हमारे जीते जी मरने की निशानी है। 

जीने खातिर जो हम सबकी बुनियादी जरूरतें हैं अगर वो भी हमसे नित्य दूर होती जाए जबकि हम सब यथोचित श्रम करके उसे हर हाल में हासिल करने के लिए शिद्दत से तलबगार भी हैं। फिर भी चारों तरफ चुप्पी ही चुप्पी है। "मीडिया स्टंट" की चकाचौंध भरी आभासी दुनिया से निकलकर अपने आसपास की हकीकत की दुनिया में छायी खामोशी को महसूस करिए मेरे प्रिय भरतवंशियों!

महामारी का बढ़ता प्रकोप, बेरोजगारी, भूखमरी, कुपोषण, रोज घटते रोजगार, आत्महत्या करने को विवश लोगों को जब शिक्षा, इलाज में भी परेशानी होने पर भी लोग अगर चारों तरफ चुप्पी साधे रहें तो यह दो बातों का संकेत हो सकता है। #पहला - यह कि हम सब वैचारिक रूप से मर चुके हैं और #दूसरा - तूफान आने के पूर्व की शांति।

अब आप स्वयं तय करें कि आखिर ये चुप्पी क्यों?

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