Monday, September 26, 2022

बिना मुस्कान के कैसा इन्सान?

हमारी मुस्कान ही हमें मुकम्मल इन्सान बनाती है। इन्सान के अलावा शायद और किसी जीव को सामान्यतया हँसते नहीं देखा गया है। जीवनयापन के क्रम में हजारों हजार जद्दोजहद के बीच हमारी मुस्कुराहट हमें नयी उर्जा देती है लेकिन पता नहीं क्यों और कैसे आजकल हम भूल गए हैं अपनी सहज मुस्कान को?

इत्तेफाक से मैं करीब 22 सालों तक एक ऐसे मकान का निवासी रहा जो एक भीड़भाड़ वाले बाजार के बीच था जहाँ वक्त मिलने पर मैं अपने गेट पर अक्सर बैठकर आते जाते अनजाने लोगों में सहज और स्वाभाविक मुस्कान की तलाश में उन चेहरों को बहुत गौर से देखा करता था लेकिन अफसोस! मुझे अधिकतर लोगों के चेहरे पर परेशानी, तनाव के ही दर्शन हुए। इसी भीड़ में अगर कुछ परिचितों से नजरें मिलीं तो औपचारिकतावश वे जबरन अपने होंठों पर मुस्कान लाने में भी सफल हुए जिस प्रकार रिशेप्शन पर बैठे लोगों द्वारा ग्राहकों के सामने "व्यावसायिक मुस्कान" सायस उत्पन्न की जाती है। हाँ ! हजारों चेहरे में कभी कभी एकाध चेहरे अनायास सहज भी दिखे। आखिर क्यों और कहाँ खो गयी है हमारी मुस्कान? जबकि हम जानते हैं कि बिना मुस्कान के कैसा इन्सान?

हम सबके जीवन में अक्सर हम अपने अपने स्तर पर पाते हैं कि "सुख की पोटली" बहुत छोटी है और "दुख का बोझ" बहुत बड़ा है। मनोवैज्ञानिक दृष्टि से भी अक्सर हमें अपना दुख और दूसरे का सुख बड़ा दिखता है जबकि हकीकत यह है कि सबकी परेशानी का अपना अपना सबब है, उसके अलग प्रभाव, उससे निबटने के अपने अपने तरीके और संसाधन हैं लेकिन हर हाल में जीवन के हर संघर्ष में हमारा हौसला ही हमारा सच्चा साथी साबित होता है और हम सब हौसला-रूपी अपने इस परममित्र से जाने अनजाने लगातार दूर क्यों होते जा रहे हैं? कभी कहीं सुना था कि -

बोझ गर होता गमों का तो उठा लेते
जिन्दगी बोझ बनी है तो उठाएं कैसे

लेकिन नहीं मित्रों! मेरी दृष्टि में जिन्दगी बोझ नहीं बल्कि खुदा की नेमत है जिसे हमें अपने श्रम, संघर्ष से उसे और बेहतर बनाने हेतु आजीवन प्रयास करते रहना होगा ताकि आनेवाली पीढ़ी भी हमसे सीखकर संघर्ष की इस विरासत को लेकर आगे का जीवन सफर सफलतापूर्वक तय कर सके। अपनी बहुत पुरानी पंक्तियां याद आयीं कि - 

संघर्ष न किया तो धिक्कार जिन्दगी है
काँटों का सेज फिर भी स्वीकार जिन्दगी है

तो चलिए मित्रों! जीवन के हजारों हजार संघर्षों के बीच, अपने लिए, अपनी आनेवाली पीढ़ी के लिए, समाज, देश, दुनिया में सबके साथ मिलकर जीने के लिए हौसले के साथ हम अपनी मुस्कान को लौटाने की कोशिश करके एक मुकम्मल इन्सान बनने की दिशा में अपना अपना कदम बढ़ाएं। सिर्फ "मुस्कान" शब्द को केन्द्रित करके बहुत पहले कुछ दोहों का सृजन मेरे द्वारा हुआ था उसी के साथ आज विराम लेता हूं कि -

दोनों में अन्तर बहुत, आंखों से पहचान।
स्वाभाविक मुस्कान या, व्यवसायिक मुस्कान।।

जीवन वह जीवन्त है, जहाँ नहीं अभिमान।
सुख दुख से लड़ते मगर, चेहरे पर मुस्कान।।

ज्ञान किताबी ही नहीं, व्यवहारिक हो ज्ञान।
छले गए विद्वान भी, मीठी जब मुस्कान।।

अपनापन या है जहर, हो इसकी पहचान।
दर्द, प्रेम या और कुछ, क्या कहती मुस्कान।।

क्या किसका कब रूप है, होश रहे औ ध्यान।
घातक या फिर प्रेमवश, या कातिल मुस्कान।।

कभी जरूरत है कभी, मजबूरी श्रीमान।
प्रायोजित होती जहाँ, लज्जित है मुस्कान।।

जीव सभी हँसते कहाँ, आदम को वरदान।
हृदय सुमन का वास तब, स्वाभाविक मुस्कान।।

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