Tuesday, September 19, 2023

जिन्दा लाशों की बस्ती से

जो प्राकृतिक रूप से गूंगे हैं, उनकी भावनात्मक अभिव्यक्ति की विवशता को आसानी से समझा जा सकता है। वे अपने दैहिक या प्राकृतिक कारणों से अगर कुछ नहीं व्यक्त कर पाते हैं तो उन्हें दोष नहीं दिया जा सकता।

लेकिन अभी सत्ता पर काबिज रहने के उद्देश्य से लगातार चली जा रही सियासी चाल में पहले आमजनों को वैचारिक रूप से अंधा बनाये की कोशिश हो रही है ताकि सरकारी लालच अथवा भय दिखलाकर उन्हें धीरे धीरे गूंगा बनाने में भी आसानी हो सत्ताधीशों को। किसी न किसी वजह से हम सभी या तो गूंगे बन गए हैं या बना दिए गए हैं। 

फिर भी कुछ "ढीठ लोग", हैं जो आज भी सबको अपनी अपनी आवाज उठाने के लिए लगातार आवाज दे रहे हैं। लेकिन ऐसे लोगों को भी लगातार जेल, मुकदमा, ट्रोलिंग द्वारा जबरन गूंगा बनाने की शासकीय कोशिश बदस्तूर जारी है ताकि देशवासी सहित विदेशियों को भी ऐसा लगे कि अपने देश में सर्वत्र खुशियाली और अमन चैन कायम है।

शरीर का शाँत होना, मृत्यु का संकेत है और सामान्यतया आमलोगों का शाँत रहना यथेष्ठ सुख-सुविधा और ज्ञान का भी परिचायक है। लेकिन असामान्य स्थिति में भी शाँति से खामोश रहना हमारे जीते जी मरने की निशानी है। सचमुच कई बार खुद के भीतर स्वाभाविक रूप से एक सवाल पैदा होता है कि कहीं हम जिन्दा लाशों की बस्ती में तो नहीं रहते?

खुद से देखो उड़ के यार
अहसासों से जुड़ के यार
जैसे गूंगे स्वाद समझते
कह न पाते गुड़ के यार

जीने खातिर सबकी कुछ न कुछ बुनियादी जरूरतें हैं और जिसे यथोचित श्रम करके हम सब हर हाल में हासिल करने के लिए शिद्दत से तलबगार भी हैं। फिर भी वो बुनियादी सुविधाएं अगर हमसे नित्य दूर होती चली जा रहीं हैं और चारों तरफ चुप्पी ही चुप्पी है तो निश्चिरूपेण यह हमारे वैचारिक मुर्दापन का जीवंत प्रमाण है। मीडिया की चकाचौंध भरी आभासी दुनिया से निकलकर अपने आस पास की असलियत की दुनिया में छायी खामोशी को गंभीरतापूर्वक महसूस करिए मेरे प्रिय भरतवंशियों!

मँहगाई, बेरोजगारी, भूखमरी, कुपोषण, रोज घटते रोजगार के अवसर, आत्महत्या करने को विवश आमलोगों को जब भोजन, वस्त्र, आवास, शिक्षा, इलाज में भी परेशानी होने लगे और फिर भी अगर चारों तरफ चुप्पी ही चुप्पी साधे हुए लोग हों तो यह दो बातों का संकेत हो सकता है। (1) - यह कि हम सब वैचारिक रूप से मर चुके हैं और (2) - तूफान आने के पूर्व की शाँति। 

अब आप स्वयं तय करें कि आखिर ये चुप्पी क्यों? पर वैचारिक रूप से हमेशा हमें यह ध्यान रखना चाहिए कि हमारी सामूहिक खामोशी शासकीय तंत्र को और आवारा बनाने में सहयोगी बनेगी। जय हिन्द।

Thursday, May 4, 2023

अपने नागरिक-बोध का आईना

अपने देश में सियासी दलों के मदारियों ने कुछ कुछ ऐसे जमूरे तैयार कर रखे हैं जो उनकी कही / अनकही बातों को तमाशाइयों के सामने अपने अपने रोचक तरीके से पेश करके उन मदारियों के निजी हित को साध रहे हैं जो या तो सत्तासीन हैं या गद्दी हथियाने के लालायित हैं और देश की आम जनता सिर्फ तमाशाई बनकर रह गई है।

सोशल मीडिया पर इतने नफरत और गंध भरे पोस्ट पहले कभी देखने को नहीं मिलते थे जितने आजकल मिल रहे हैं। यह मैं सोशल मीडिया पर अपने दशकों के अनुभव के आधार पर कह रहा हूँ। सब अपने अपने मदारियों के समर्थन में जी जान से लगे हैं। विष वमन करती भाषा के साथ साथ विघटनकारी और फिर टिप्पणी में गाली गलौज तो बिल्कुल आम है आजकल। 

आखिर क्या बाँटने की कोशिशें हो रहीं हैं समाज में? क्या जमूरे इतने बेलगाम हैं? क्या मदारियों का जमूरों पर से नियंत्रण खत्म हो गया है? या यह मदारियों की कोई नयी सियासी रणनीति है? हमें इसे ठीक से समझने की जरूरत है। हम सिर्फ तमाशाई बनकर नहीं रह सकते क्योंकि इस अर्जित लोकतंत्र में एक नागरिक के रूप में इस समाज को गढ़ने और भविष्य में बेहतर से बेहतर सामाजिक परिवेश बनाने की जिम्मेवारी से हम खुद को बचा नहीं सकते।

मुख्यधारा के सभी समाचार चैनल इसी दिशा दशा में"राग-सरकारी" गाने को विवश कर दिए गए हैं। कैमरे और कलम पर बंदूक का पहरा है। वहाँ भी टी आर पी के चक्कर में देश की सही तस्वीर से आम जनता को महरूम रखा जाता है और बहस के नाम पर अपने अपने मदारियों के पक्ष में न्यूज चैनल के एंकरों द्वारा जमूरों को मुर्गे की तरह खूब लड़वाया जाता है। तथाकथित बहस, वाक् - युद्ध में परिवर्तित होकर अमर्यादित भाषा के साथ गाली गलौज और आजकल लाइव हाथापाई तक पहुंच गया है। हम फिर भी तमाशाई की तरह अपने अपने घरों में "बुद्धु-बक्से" के सामने बैठकर चाय की चुस्की के साथ मजे लेकर सुनते रहते हैं और उसे ही अपना "ज्ञान" समझकर अवसर मिलते ही मित्रों / परिजनों में बाँटने में बिल्कुल भी नहीं हिचकिचाते।

आखिर यह सिलसिला कब तक चलेगा? जब देश महामारी के कारण मौत के मुहाने पर खड़ा था, चिकित्सकीय सुविधा के अभाव में हजारों लोग प्रतिदिन काल के गाल में समा रहे थे, हजारों लोग मौत को गले लगाने हेतु प्रतिक्षित थे, श्मशानों में मृतकों के अंतिम संस्कार के लिए लाइनें लगीं रहतीं थी, फिर भी हम सम्वेदन-हीन की तरह सिर्फ तमाशाई बने रहे और मदारी अपने जमूरों की मदद से अपना-अपना सियासी करतब दिखा रहा था। वही हाल किसान आन्दोलन के समय भी देखा हमने और अभी महिला पहलवान आन्दोलन के समय भी देख रहे हैं। क्या हम सचमुच बेबस हैं? या यथास्थिति से खुद को बाहर निकालने से डरते हैं? या फिर जाने अनजाने हम "नागरिक" से "प्रजा" में बदल गये है? खुद से खुद के मूल्यांकन की जरूरत है।

धिक्कार है हमारी ऐसी सोच पर! क्या हम अपनी सम्वेदना खो चुके हैं? क्या मनुष्यता का कुछ भी अंश हमारे भीतर शेष है? सोच के इस दिवालियेपन पर हर किसी को विचार करना होगा और अगर अपनी अगली पीढ़ी के लिए एक बेहतर सामाजिक परिवेश हम नहीं छोड़ पाए तो याद रखिए हमारी सन्तति भी हमें कभी माफ नहीं करेगी और हम भविष्य में भी धिक्कारे जाएंगे।

मत भूलिए कि मदारी "चाकू" है और जमूरों के साथ हम सभी तमाशाई "कद्दू"। चाकू, कद्दू पर गिरे या कद्दू पे चाकू हर हाल में घायल कद्दू ही होता है। मदारी हमेशा सुरक्षित ही रहेंगे और हम, आप कटते रहेंगे। यह भी मत भूलिए की हर मदारी की नजरों में हम सिर्फ एक आंकड़ा भर हैं। तो आईये! अपनी अपनी आँखें खोलिए और खुद के नागरिक-बोध को जगाकर खुद को एक आंकड़ा होने से बचाइए। वरना न तो इतिहास आपको माफ करेगा, न आप ही खुद को माफ कर पाएंगे और न ही आपकी आनेवाली पीढ़ी। जय हिन्द।


Monday, January 23, 2023

सा विद्या या विमुक्तये

एक रोचक अनुभव से अपनी बात शुरू करता हूँ। कुछ साल पहले हाई स्कूल के कुछ विद्यार्थी मेरे घर सरस्वती पूजा के लिए चन्दा करने आए। जैसा कि अमूमन होता है,  समय के अनुरूप उन बच्चों ने कुछ ज्यादे रकम की माँग की। मैंने कहा तुमलोगों की बातें मुझे एक शर्त पर स्वीकार है यदि तुम में से कोई बच्चा सरस्वती माता के नाम का पाँच पर्यायवाची बता दो तो? 

आश्चर्य हुआ कि वे बच्चे यह नहीं बता सके और फिर मैंने जो चन्दा में  दिया लेकर चले गए क्योंकि वे वाग्देवी सरस्वती की सच्ची साधना से उन्हें विशेष लगाव नहीं था। यदि सच्ची साधना (पढ़ाई-लिखाई) करते तो मुझे सही उत्तर भी मिलता और उनलोगों को मुँहमाँगी रकम भी सरस्वती पूजन के लिए। दरअसल आज के हालात ऐसे बन ही  गए  हैं या बनाए गए हैं कि जो सरस्वती के सच्चे साधक होते हैं वे अक्सर गली मुहल्लों में, यत्र तत्र चन्दा इकट्ठा करके पूजा करते हुए दिखाई नहीं देते बल्कि माता की आराधना पुस्तकों में डूबकर करते हैं। खैर ---

साहित्य -संगीत - कला की अधिष्ठात्री देवी सरस्वती हिन्दु धर्म की प्रमुख देवियों में से एक है जिन्हें धर्म शास्त्रों में कहीं ब्रह्मा की "मानस - पुत्री" कहा गया है तो देवी भागवत में ब्रहमा की स्त्री भी कहा गया है  साथ ही  शारदा, शतरूपा, वाणी, वाग्देवी, वागेश्वरी, भारती आदि कई नामों से उन्हें जाना जाता है। सिर्फ भारत ही नहीं बल्कि अन्य देशों में सरस्वती या विद्या की देवी को कई अन्य नामों से पुकारा जाता है - जैसे - बर्मा में - "थुराथाडी" या "तिपिटक मेदा", चीन में - "बियानचाइत्यान", जापान में - "बेंजाइतेन" तो थाईलैंड में - "सुरसवदी" आदि। 

एक हाथ में पुस्तक, एक हाथ में वीणा, श्वेत कमल पर वास करनेवाली देवी सरस्वती श्वेत हंस पर सवार होकर विचरण करतीं हैं। ऐसी मान्यता है कि माघ शुक्ल पक्ष पंचमी (जिसे वसंत पंचमी भी कहा जाता है और इसी दिन से होली खेलने की शुरूआत भी हो जाती है) को सरस्वती का जन्म हुआ और सदियों से इसी दिन सरस्वती पूजा के रूप में मनाये जाने का चलन है। शिक्षा की गरिमा, बौद्धिक विकास की आवश्यकता जन-जन को समझाने के लिए सरस्वती पूजा की परम्परा है। अतः सभी शिक्षण संस्थानों में इसे समारोह पूर्वक मनाया जाता है और हम समवेत स्वर में उद्घोष करते हैं कि "तमसो मा ज्योतिर्गमय" ताकि ज्ञान रूपी प्रकाश की अधिकता से हम सब की पशुता मरे और उच्चतर मनुष्यता प्राप्ति की ओर हम सब नित्य अग्रसर हो सकें।

बचपन में एक नीति श्लोक पढ़ा करता था जो आज के प्रसंग मे बहुत समीचीन है कि -

"विद्या ददाति विनयम् विनयद्याति पात्रताम्।
पात्रत्वा धनमाप्नोति धनात् धर्मः ततः सुखम्।।

आज के दुरूह और गलाकाट प्रतियोगिता वाले इस भौतिकतावादी युग में ऐसे नीति श्लोकों की महत्ता और बढ़ जाती है। अर्थ बिल्कुल सामान्य है पर मनुष्य होने के नाते इसका मनन करना आवश्यक है क्योंकि अपने आप में "मनन" करके ही "मनुष्य" बनने की सार्थकता संभव है। विद्या सर्वप्रथम विनयशीलता देती है और विनम्रता से "पात्रता" आती है। पात्रता अर्थात पात्र (बर्तन) बनना। पात्रता आते ही धन का आगमन फिर धर्म और सुख की कामना। 

यदि गौर से सोचें तो  प्रायः सभी के  जीवन का यही लक्ष्य भी होता है। यह भी सत्य है कि वैज्ञानिक विकास के साथ शिक्षा के आयाम, संसाधन, संस्थान आदि पहले के वनिस्पत प्रचूर मात्रा में बढ़ हैं और इसके साथ साथ शिक्षार्थियों की संख्या में काफी इजाफा हुआ है किन्तु क्या उसी अनुपात में विनयशीलता बढ़ी है? यह मौलिक प्रश्न हमारे आपके सामने मुँह बाये खड़ा है। 

हम सबका प्रत्यक्ष अनुभव तो यही है कि ऊँची डिग्री प्राप्त करके भी अधिकतर लोग विनयशील नहीं हैं और सामान्य डिग्रियों वाले का फिर कहना ही क्या? विनम्रता का अभाव शिक्षा का मूल उद्येश्य ही समाप्त कर देता है। फिर कहाँ से पात्रता, काहे का धर्म और कैसा सुख?

संस्कृत का एक सूत्र - वाक्य "सा विद्या या विमुक्तये" मुझे हमेशा प्रेरित करते रहता है। विद्या हम उसे ही कह सकते हैं जो हम सबको जीवन के बंधनों से आज़ाद करे, मुक्त करे। कई उलझनों में उलझा हम सबका जीवन नित्य जीवन में व्याप्त बंधनों से मुक्ति की माँग करता है और हम सब अपने अपने प्राप्त ज्ञान के आधार पर उसे सुलझाते भी हैं और यह सुलझाने की प्रक्रिया जीवन पर्यंत चलती रहती है ताकि जिन्दगी आसान बन सके। 

आज के इस विद्रूप भोगवादी और भौतिकतावादी युग में, जहाँ समाज में विनम्रता की जगह उदण्डता बढ़ी है, जरूरत है सरस्वती की सच्ची उपासना, सही अर्थों में ज्ञानार्जन तथा उसके दैनिक उपयोग की ताकि यह समाज हम सब के साथ साथ अगली पीढ़ी के लिए भी जीने लायक रह सके।

और अन्त में सरस्वती माता के वरद्-पुत्र माने जाने वाले सूर्यकान्त त्रपाठी "निराला" जी, जिनका जन्म दिवस भी वसंत पंचमी को ही मनाया जाता है, की यादों को नमन करते हुए उन्हीं के द्वारा रचित सरस्वती वन्दना की दो पंक्तियों से अपनी बात समाप्त करता हूँ ।
नव गति, नव लय, ताल छंद नव, नवल कंठ, नव जलद मंद्र रव।
नव नभ के नव चिहग-वृन्द को नव पर नव स्वर दे।
वीणा वादिनी वर दे।।