Thursday, May 4, 2023

अपने नागरिक-बोध का आईना

अपने देश में सियासी दलों के मदारियों ने कुछ कुछ ऐसे जमूरे तैयार कर रखे हैं जो उनकी कही / अनकही बातों को तमाशाइयों के सामने अपने अपने रोचक तरीके से पेश करके उन मदारियों के निजी हित को साध रहे हैं जो या तो सत्तासीन हैं या गद्दी हथियाने के लालायित हैं और देश की आम जनता सिर्फ तमाशाई बनकर रह गई है।

सोशल मीडिया पर इतने नफरत और गंध भरे पोस्ट पहले कभी देखने को नहीं मिलते थे जितने आजकल मिल रहे हैं। यह मैं सोशल मीडिया पर अपने दशकों के अनुभव के आधार पर कह रहा हूँ। सब अपने अपने मदारियों के समर्थन में जी जान से लगे हैं। विष वमन करती भाषा के साथ साथ विघटनकारी और फिर टिप्पणी में गाली गलौज तो बिल्कुल आम है आजकल। 

आखिर क्या बाँटने की कोशिशें हो रहीं हैं समाज में? क्या जमूरे इतने बेलगाम हैं? क्या मदारियों का जमूरों पर से नियंत्रण खत्म हो गया है? या यह मदारियों की कोई नयी सियासी रणनीति है? हमें इसे ठीक से समझने की जरूरत है। हम सिर्फ तमाशाई बनकर नहीं रह सकते क्योंकि इस अर्जित लोकतंत्र में एक नागरिक के रूप में इस समाज को गढ़ने और भविष्य में बेहतर से बेहतर सामाजिक परिवेश बनाने की जिम्मेवारी से हम खुद को बचा नहीं सकते।

मुख्यधारा के सभी समाचार चैनल इसी दिशा दशा में"राग-सरकारी" गाने को विवश कर दिए गए हैं। कैमरे और कलम पर बंदूक का पहरा है। वहाँ भी टी आर पी के चक्कर में देश की सही तस्वीर से आम जनता को महरूम रखा जाता है और बहस के नाम पर अपने अपने मदारियों के पक्ष में न्यूज चैनल के एंकरों द्वारा जमूरों को मुर्गे की तरह खूब लड़वाया जाता है। तथाकथित बहस, वाक् - युद्ध में परिवर्तित होकर अमर्यादित भाषा के साथ गाली गलौज और आजकल लाइव हाथापाई तक पहुंच गया है। हम फिर भी तमाशाई की तरह अपने अपने घरों में "बुद्धु-बक्से" के सामने बैठकर चाय की चुस्की के साथ मजे लेकर सुनते रहते हैं और उसे ही अपना "ज्ञान" समझकर अवसर मिलते ही मित्रों / परिजनों में बाँटने में बिल्कुल भी नहीं हिचकिचाते।

आखिर यह सिलसिला कब तक चलेगा? जब देश महामारी के कारण मौत के मुहाने पर खड़ा था, चिकित्सकीय सुविधा के अभाव में हजारों लोग प्रतिदिन काल के गाल में समा रहे थे, हजारों लोग मौत को गले लगाने हेतु प्रतिक्षित थे, श्मशानों में मृतकों के अंतिम संस्कार के लिए लाइनें लगीं रहतीं थी, फिर भी हम सम्वेदन-हीन की तरह सिर्फ तमाशाई बने रहे और मदारी अपने जमूरों की मदद से अपना-अपना सियासी करतब दिखा रहा था। वही हाल किसान आन्दोलन के समय भी देखा हमने और अभी महिला पहलवान आन्दोलन के समय भी देख रहे हैं। क्या हम सचमुच बेबस हैं? या यथास्थिति से खुद को बाहर निकालने से डरते हैं? या फिर जाने अनजाने हम "नागरिक" से "प्रजा" में बदल गये है? खुद से खुद के मूल्यांकन की जरूरत है।

धिक्कार है हमारी ऐसी सोच पर! क्या हम अपनी सम्वेदना खो चुके हैं? क्या मनुष्यता का कुछ भी अंश हमारे भीतर शेष है? सोच के इस दिवालियेपन पर हर किसी को विचार करना होगा और अगर अपनी अगली पीढ़ी के लिए एक बेहतर सामाजिक परिवेश हम नहीं छोड़ पाए तो याद रखिए हमारी सन्तति भी हमें कभी माफ नहीं करेगी और हम भविष्य में भी धिक्कारे जाएंगे।

मत भूलिए कि मदारी "चाकू" है और जमूरों के साथ हम सभी तमाशाई "कद्दू"। चाकू, कद्दू पर गिरे या कद्दू पे चाकू हर हाल में घायल कद्दू ही होता है। मदारी हमेशा सुरक्षित ही रहेंगे और हम, आप कटते रहेंगे। यह भी मत भूलिए की हर मदारी की नजरों में हम सिर्फ एक आंकड़ा भर हैं। तो आईये! अपनी अपनी आँखें खोलिए और खुद के नागरिक-बोध को जगाकर खुद को एक आंकड़ा होने से बचाइए। वरना न तो इतिहास आपको माफ करेगा, न आप ही खुद को माफ कर पाएंगे और न ही आपकी आनेवाली पीढ़ी। जय हिन्द।


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