Monday, December 19, 2022

मुक्त-छंद और छंद-मुक्त कविता

शीर्षक के अनुसार कभी एक कविता पोस्ट किया था। कुछ मित्रों के प्रश्नों के समाधान हेतु अपना पक्ष रखते हुए मुझे एक लम्बी टिपण्णी लिखनी पडी। बाद में मित्रों के आग्रह को स्वीकार करते हुए उसी टिपण्णी को मामूली संशोधन के साथ पोस्ट कर रहा हूँ आपके अवलोकन और विचार हेतु।

मैं अपनी समझ से अपनी बात रखने की चेष्टा करता हूँ जिससे सहमत / असहमत होना पूर्णतः पाठक मित्रों की इच्छा पर है। असहमत होने पर भी मुझे कोई दुख नहीं होगा। मैं यह भी विनम्रता सै स्वीकार करता हूँ कि मुझसे अच्छे और सटीक विचार आ सकते हैं जिसे मैं भी सहर्ष स्वीकार करूँगा।

जब भी कहीं "मुक्त छंद की बात होती है अक्सर लोग एक बडा नाम निराला का उदाहरण सामने रख देते हैं। निराला की एक मुक्त छंद की कविता (शायद इस तरह की पहली चर्चित) सामने आती है कि - 

वो आता
दो टूक कलेजे के करता
पछताता
पथ पर जाता ------

यदि इस रचना पर हम गौर करें / इसे लय से पढ़ें तो हम स्वाभाविक रूप से पाते हैं कि इसमें छंद / लय तो है पर यह एक स्थापित "छंद विधान" से मुक्त है।

हमारे साहित्य में दोहा, चौपाई, सोरठा, कुण्डली आदि अनेकानेक स्थापित छंद हैं जिसमें निश्चित मात्रा / विधान तय किए हुए हैं और उस छंद को लिखने के लिए उससे बाहर जाने की अनुमति हमारे शास्त्रज्ञ नहीं देते।

समय के साथ यह भी महसूस किया जाने लगा कि हर समय, हर बात, हर घटना को स्थापित छंदों के नियमो का पालन करते हुए कहना कई बार मुश्किल होता है। किंचित इसी कठिनाई के समाधान के रूप में ऐसी कविता आयी, फली फूली और विकसित भी हुई। कालक्रम में इस प्रकार की कविता की विकास याात्रा बढ़ती रही और कई अत्यंत महत्वपूर्ण कविताएँ सामने भी आयीं जिसकी स्वीकार्यता बढ़ती गयी।

हर विकास यात्रा की तरह इस विकास यात्रा में सकारात्मक पक्ष के अलावा नकारात्मक पक्ष का भी विकास होता रहा है और "मुक्त छंद" के बदले "छंद मुक्त" कविता लिखी जाने लगी जो आजकल तो धड़ल्ले से लिखी जा रही है और कई लोग तो इसे "गद्य कविता" तक कह जाते हैं।

"छंद मुक्त" कविता में हमने उस कविता को छंद / लय/ रिदम से पूरी तरह से मुक्त करना शुरू कर दिया जो "मुक्त छंद" के विकास के कारण छंद विधान से पहले से ही मुक्त हो चुकी थी। परिणाम स्वरूप कविता अलोकप्रिय होने लगी या दूसरे शब्दों में कहें तो कविता मरने लगी। जिन्हें "छंद मुक्त" कविता लिखना है उनके लिए "गद्य लेखन" का सहारा लेना ही श्रेयष्कर है क्योंकि गद्य लेखन का फलक भी बहुत विस्तृत है।

कविता का जुड़ाव सीधे तौर पर प्रकृति के साथ है। प्रकृति में नदियों की धारा के कलकल का स्वर हो या पत्तों के हिलने से होनेवाली आवाज, या चिड़ियों का कलरव या फिर कुछ और हर स्वर / हर आवाज में एक रिदम / एक ताल / एक लयबद्धता हम आसानी से महसूस कर सकते हैं। यहाँ तक कि गहरी नींद में सोये हुए इन्सान की साँसों तक में एक लयबद्धता है और कविता में छंद एवं छंदबद्धता इन्हीं प्राकृतिक हलचल गहराई से जुड़ी है। या यूँ कहें कि छंद कविता की आत्मा है।

अर्थात कविता का मौलिक उत्स यही प्राकृतिक गतिविधियों से जुडी छंदबद्धता से ही है। अतः जब जब कविता छंद विहीन होगी तब तब कविता कमजोर होगी / मरेगी। अतः कविता और छंद के जुडाव को बनाए रखें ताकि कविता बढ़ती रहे अपनी नैसर्गिक सुन्दरता के साथ अनवरत - लगातार।

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