दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र यानि भारत के बारे में अक्सर कहा जाता है कि यह देश संविधान से चलता है और यह सैद्धांतिक रूप से सही भी है। जिस प्रकार देश में कार्यपालिका के संवैधानिक प्रमुख राष्ट्रपति होते हैं और व्यवहारिक प्रमुख प्रधानमंत्री। ठीक उसी तरह संविधान तो सबसे ऊपर है ही पर व्यवहारिक संवैधानिक शक्ति हमारे देश के संसद के पास है जिसका प्रमाण है अबतक संसद द्वारा शताधिक संविधान संशोधन। संसद हमारी लोकतन्त्रीय व्यवस्था के लिए रीढ़ के समान है। इसे लोकतंत्र का मंदिर भी कहा जाता है। संसद के दायरे में संसद के अतिरिक्त विधान सभाओं को भी देखने / समझने की जरूरत है। पर उस संसद की स्थिति आज क्या है? हम सब जानते हैं। तब मेरे जैसे कलमकार को कहना पड़ता है कि -
जहाँ पर देश की बातें सुजन करते हैं वो संसद
विरोधों में भी शिष्टाचार की पहचान है संसद
कई दशकों के अनुभव से क्यूँ हमने ये नहीँ सीखा
अशिष्टों की लड़ाई का अखाड़ा बन गया संसद
सत्तर के दशक से आजतक करीब करीब सभी दलों की कहानी यही रही कि सबने पहले अपराधी का राजनीतिकरण किया और बाद में राजनीति का अपराधीकरण करने में अपने अपने स्तर से योगदान दिया। कभी किसी समाजशास्त्री ने कहा था कि "प्रजातंत्र मूर्खों का शासन है" और आजकल हमारे सांसदों के व्यवहार ने इसे साबित भी कर दिया है। तब लेखनी स्वतः कहती है कि -
राष्ट्रगान आए ना जिनको, वो संसद के पहरेदार
भारतवासी अब तो चेतो, लोकतंत्र सचमुच बीमार
कहने को जनता का शासन लेकिन जनता दूर बहुत
रोटी, पानी खातिर तन को बेच रहे, मजबूर बहुत
फिर कैसे उस "गोत्र-मूल" के लोग ही संसद जाते हैं
हर चुनाव में नम्र भाव फिर दिखते हैं मगरूर बहुत
प्रजातंत्र मूर्खों का शासन कथन हुआ बिल्कुल साकार
भारतवासी अब तो चेतो लोकतंत्र सचमुच बीमार
संसद में होनेवाली अभद्रता, मनमानी, वैचारिक बहस से दूर "बायकाट" या कार्यवाही ना चलने देना आदि आदि से लेकर सदस्यों के वेतन / भत्ता / सुविधा बढ़ोतरी वाले विधेयक को पास कराने में सारे सदस्यों की चट्टानी एकता आदि को समान रूप से बार बार देखने के पश्चात एक सम्वेदनशील हृदय ये बात स्वतः निकलती है कि -
देशभक्ति जनहित की बातें सब करते हैं संसद में
अपने अपने स्वारथ में वो नित लड़ते हैं संसद में
मरी जनता बेचारी! खेल तू संसद संसद! !
अक्सर जो चुनकर जाते हैं लोगों संग आघात किया
नाम वही सुर्खी में यारों जो जितना अपराध किया
रोज बढ़ती बेकारी! खेल तू संसद संसद! !
फिर ऐसे निर्मम खेल से आहत होकर मन क्रोधित होकर कह उठता है कि -
कोई सुनता नहीँ मेरी तो गा कर फिर सुनाऊँ क्या
सभी मदहोश अपने में तमाशा कर दिखाऊँ क्या
बहुत पहले भगत ने कर दिखाया था जो संसद में
ये सत्ता हो गयी बहरी धमाका कर दिखाऊँ क्या
लेकिन सत्य अहिंसा की इस धरती पर धमाका स्वीकार्य नहीँ। असल धमाका तो तब होगा जब हम अपने लोकतन्त्रीय अधिकार यानि मतदान की कीमत को सही अर्थों में समझकर बहादुरी से सिर्फ नेक लोगों को संसद भेज पाने में सफल होंगे। एक जागा हुआ देशवासी यह आह्वान करता है कि -
शासन का मंदिर है संसद क्यों लगता लाचार
कुछ जनहित पर भाषण दे कर स्वारथ का व्यापार
रंगे सियारों को पहचाने बदला जिसने वेष
कागा! ले जा यह संदेश! घर घर दे जा यह संदेश!!
और अन्त में दोस्तों -
धरा के गीत गाते हैं, गगन के गीत गाते हैं
शहीदों की चिताओं पर नमन के गीत गाते हैं
सुमन सारे सहजता से खिलेंगे जब मेरे यारा
चमन के तब सुमन मिलके वतन के गीत गाते हैं
सादरश्यामल सुमन
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