याद आती है आज से ३० साल पहले की घटना यानि सन १९८४ के अक्टूबर माह की जब मैं पहली बार साईकिल छोड़कर मोपेड (उन दिनों सुवेगा) की सवारी करने लगा था। कितना खुश था मैं? क्या कहूँ? शुरू शुरू में जब सड़कों पर मोपेड दौड़ाता था तो लगता था कि हवा में उड़ रहा हूँ। उससे भी बड़ी बात कि चलो साईकिल से निजात तो मिली। उन दिनों में किसी के पास गाड़ी का होना "स्टेटस सिम्बाल" माना जाता था और साथ ही सालों साल साईकिल की सवारी करने के कारण मन में अनायास उपजे "हीन-ग्रंथि" से भी मुक्ति मिली। समय बदला, साल बदले, फिर स्कूटर बाद में मोटर साईकिल और उसके बाद कार भी आई दरवाजे पर।
एक आर्ष वचन है कि "शरीरमाद्यौ खलु धर्म साधनम्" अर्थात शरीर ठीक ठाक रहेगा तब ही धर्म (कर्तव्य) साधना समभ्भव है। सच यह है कि शरीर स्वस्थ रखने के लिए मैं कुछ भी प्रयास अलग से नहीं करता अर्थात व्यायाम, टहलना, अनुलोम विलोम इत्यादि। कारपोरेट आफिस की आरामदेह (शारीरिक रूप से) नौकरी शेष समय घर में सुबह शाम बैठकर चाय - नाश्ता का आनन्द लेते हुए पठन पाठन और लेखन या फिर कोई साहित्यिक कार्यक्रम तक सिमट कर रह गया।
ठीक ३० साल बाद अक्टूबर २०१४ में मैं सोचने को विवश हो गया कि इस ५५ साल की उम्र में मुझे कुछ ना कुछ तो स्वस्थ रहने के लिए करना ही पडेगा। बहुत कुछ सोचने और परिजन सहित मित्रगणों की वक्रोक्ति के बाद भी मैंने अपने बिछुड़े हुए साथी साईकिल से फिर दोस्ती करने की ठानी और नयी साईकिल खरीदी।
अब मैं करीब २० दिनों से नित्य साईकिल से आफिस आना जाना करता हूँ। शारीरिक रूप से तो बेहतर महसूस करता ही हूँ साथ ही आफिस में मेरे कई साथी अचरज और प्रशंसा भरी दृष्टि से मेरे इस प्रयास को देखते हैं तो अच्छा लगता है। पता नहीं ३० साल पुरानी वो "हीन-ग्रंथि" कहाँ खो गयी?
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