औरंगजेब पर देश भर में आजकल हो रही बहस से पता नहीं किसकी किसकी "जेब" भर रही हैं और किसकी खाली? लगभग पचास सालों तक भारत का ये बादशाह तो सदियों पहले दुनिया छोड़कर चला गया! लेकिन उसी पर दिन रात जोरदार चर्चा करके हम अपने देश की मँहगाई, बेरोजगारी, भ्रष्टाचार आदि किस ज्वलंत समस्या का समाधान करने में कैसे सफल होंगे? पता नहीं!
कभी लिखा था कि "दल बदला, शासक भी बदले, मगर तंत्र का हाल वही" इस कठोर सच्चाई से इन्कार करना मुश्किल है। सियासी चक्रव्यूह में फंसकर अधिकांश लोगों ने खुद को वैचारिक रूप सै "कद्दू" बना लिया है और नेतागण तो पहले से "चाकू' हैं ही। नुकसान स्वाभाविक रूप से हर हाल में कद्दू को ही उठाना पड़ता है और आम नागरिक उठा भी रहे हैं।
मानव-धर्म से ऊपर कोई धर्म नहीं है क्योंकि मानव-धर्म की सीमा के भीतर ही दुनिया के सभी धर्म समा जाते हैं। मनुष्यता की रक्षा के लिए परस्पर आपसी सहयोग से प्रेमपूर्ण जीवन जीना ही मानव धर्म है और सभी धर्मों के मूल स्वर में भी यही बात है तो फिर अपने-अपने तथाकथित धर्मों के लिए इतनी हाय-तौबा और मार-काट क्यों? सनद रहे कि दुनिया के आजतक के इतिहास में सारे युद्धों में जितने लोग मरे हैं उससे कई गुणा अधिक लोग विभिन्न धर्मों के नाम पर मारे गए हैं और मारे जा भी रहे हैं।
किसी बात को हम आप जब "मानने" लगते हैं तो वहाँ से उसे "जानने" की प्रक्रिया या तो थम जाती है या फिर धीमी पड़ जाती है। यही कारण है कि मैंने जीवन भर "व्यक्ति-पूजा" से खुद को दूर रखा। लेकिन धर्म की अफीम चाटने के बाद अपने समाज में व्यक्ति-पूजकों की संख्या बढ़ी है। अपने स्कूली दिनों में एक बुजुर्ग के मुँह से अचानक सुना था कि "सबसे बड़ो समाज" और आजतक इसी विचार की प्रधानता रही है मेरे जीवन में और आगे भी रहेगी।
राम-सेतु बनाते समय "गिलहरी-सहयोग" की चर्चा खूब होती है या फिर जंगल में आग लगने पर एक चिड़िया द्वारा चोंच में पानी भर भरकर आग बुझाने की चेष्टा की चर्चा भी हमलोग करते रहते हैं। यही कारण है कि कलमकारों के लिए पूर्व से स्थापित कर्तव्य "जनपक्षधरता" की रक्षा के लिए अडिग रहना मेरा स्वभाव बन गया है और मैं हर कालखण्ड की शासन व्यवस्था के खिलाफ दिखाई पड़ने लगता हूँ जिसे आजकल देशद्रोही / गद्दार आदि विशेष विशेषणों से विभूषित करने का रिवाज बनता जा रहा है।
सच्चा कलमकार किसी का विरोधी नहीं होता बल्कि वो हर हाल में जनपक्षीय होता है। उदाहरण के लिए अगर मुझे "फूलों" से प्यार है तो इसका कत्तई यह अर्थ नहीं है कि मुझे "डाली-पत्तियों" से नफरत है! कलमकार के दिल में सिर्फ प्रेम रचता बसता है मानवता के लिए और वहाँ नफरत का कोई स्थान भला कैसे हो सकता?
मेरी तरह करोड़ों-करोड़ लोग मानवीय-मूल्यों की रक्षा के लिए अपने अपने स्तर से सदा क्रियाशील हैं और आगे भी रहेंगे और विरोध के स्वर उठते ही रहेंगे। मैं बखूबी जानता हूँ कि मुझे बहुत कम ही लोग पढ़ते और सुनते हैं लेकिन मुझे यह संतोष भी है कि भविष्य में जब कभी भी इस कालखण्ड का मूल्यांकन होगा तो लोग यह नहीं कह पाएंगे कि हमने कभी भी अपनी क्षमता का उपयोग मानवीय-मूल्यों / मानव-धर्म की रक्षा के लिए नहीं किया।
जय हिन्द।