जब से कलम घिसने "सारी" - अब तो कहना होगा "की बोर्ड" घिसने का रोग लगा है, सबेरे ५ बजे उठ जाता हूँ। ठीक उसी समय "पत्नी- कृपा" से वो चैनल खुल जाता है जहाँ रामदेव बाबा योगासन की बात पूरे जोश में बता रहे होते हैं। टी०वी० को "फुल वाल्यूम" के साथ खोला जाता है ताकि वो दूसर कमरे में भी काम करें तो उन्हें सुनने में कोई कठिनाई न हो। आदरणीय रामदेव जी के प्रति उनकी असीम भक्ति मेरे परिचतों के बीच भी सर्वविदित है। मुझे भी लाचारी में सुनना ही पड़ता है क्योंकि "आई हैव नो अदर च्वाईश एट आल"। वैसे मुझे भी बाबा रामदेव के प्रति कोई विकर्षण तो है नहीं।
मेरी पत्नी बहुत पान खाती है और बाबाजी प्रतिदिन "विदाउट फेल" इन बुराईयों से कोसों दूर रहने की ताकीद करते रहते हैं। पत्नीकी "रामदेवीय भक्ति" से प्रभावित होकर बहुत विनम्रता मैंने उनसे पूछने का दुस्साहस किया कि जब बाबा पान, गुटखा आदि खाने से इतने जोर से मना करते हैं और आप इतने श्रद्धाभाव और प्रभावी (शोर करके) ढंग से उन्हेंरोज सुनतीं हैं, फिर ये पान क्यों खातीं हैं? मेरे सौभाग्य से उन्हें उस दिन गुस्सा नहीं आया और उनके पास कोई उचित जवाब भी नहीं था अपनी आदत की विवशता के अतिरक्त।
जिस तरह से एक चावल की जाँच से पूरी हाँडी में भात बनने या न बनने का पता चल जाता है, ठीक उसी तर्ज पर मैं क्या कोई भी सोचने पर विवश हो जायेगा कि बाबा की सभाओं में उनकी बातों को समर्थन करने वाले क्या ऐसे ही लोग अधिक हैं? जो पान, गुटखा, शराब, खैनी, कोल्ड ड्रींक्स आदि छोड़ने की प्रतिदिन शपथ लेते हैं और योगासन करने के वादे के साथ हाथ उठाकर रामदेव जी के आह्वान का प्रत्यक्षतः समर्थन तो करते हैं पर व्यवहार में नहीं।
फिर याद आती है विगत दिनों भ्रष्टाचार उन्मूलन के लिए उनके द्वारा चलाए गए "भारत स्वाभिमान आन्दोलन" के तहत उनके हुंकार की। वही भीड़ और वही समर्थन की जिसके दम पर उन्होंने रामलीला मैदान में अनशन के नाम पर हजारों की भीड़ इकट्ठा कर ली। फिर शासक वर्ग की मिमियाहट, बाद में रात को अचानक उसी शासकीय पक्ष के आक्रामक रूख की भी याद आती है जिसे "मीडिया" के सौजन्य से पूरे देश ने देखा और सुना।
लोगों ने यह भी देखा सुना कि जो बाबा सबेरे में स्वयं "राह कुर्बानियों की न वीरान हो - तुम सजाते ही रहना नये काफिले" जोर जोर से गा रहे थे, वही रात में जान बचाने के लिए एक बिशेष "रक्षा घेरा" बनबा कर मंच से कूदे और लोगों में "कूदासन" की होड़ लग गयी। इसी क्रम में उन्हें "स्त्री-वस्त्र" तक भी धारण करना पड़ा। देखते ही देखते "राह कुर्बानियों" की एकाएक वीरान हो गयी। खैर----
शासकीय पक्ष के व्यवहार के क्या कहने? दिन में "पुष्प" से स्वागत और रात में "कटार" से वार। वाह क्या सीन था? "क्षणे रूष्टा - क्षणे तुष्टा"। क्या कहा जाय इस नाटकीय मोड़ को? शायद पाकिस्तानी तानाशाह भी इतनी जल्दी, वो भी एकदम विपरीत दिशा में, अपना विचार बदलने में शर्म महसूस करेंगे। एकाएक सत्ता पक्ष के लोगों को महाभारत के संजय की तरह "दिव्य दृष्टि" मिली और बाबा रामदेव "आदरणीय" से "महाठग" के रूप में अवतरित हो गए। सत्ता पक्ष ने "दिग्विजयी मुद्रा" में इसकी घोषणा भी शुरू कर दी और यह क्रम अब भी चल ही रहा है। पता नहीं कब तक चलेगा?
चाहे अन्ना हजारे हों या बाबा रामदेव - दोनों ने देश की नब्ज को पहचाना और ज्वलन्त मुद्दे भी उठाये जिसका कुल लब्बोलुआब भ्रष्टाचार ही रहा। पता नहीं "भ्रष्टाचार का मुद्दा" अब कहाँ चला गया? अब तो मुद्दा "सरकार बनाम रामदेव और अन्ना" के अहम् की टकराहट की ओर मुड़ गया है जो देश के स्वस्थ वातावरण के लिए किसी भी हालमें ठीक नहीं। गाँव की पान दुकान से लेकर दिल्ली तक जिसे देखो सब बहस में भिड़े हुए हैं। मजे की बात है कि सब भ्रष्टाचार के खिलाफ हैं मगर भ्रष्टाचार अंगद के पाँव की तरह अडिग है।
जहाँ तक मेरी व्यक्तिगत समझदारी है वर्तमान सरकार के वर्तमान रुख को मैं अंग्रेजी हुकूमत की "फोटोकापी" से कम नहीं देख पाता। जब हालात ऐसे हैं तब क्या गाँधीवादी कदम और क्या आध्यामिक योगासन? क्या सरकार पर कोई असर पड़ेगा? "सत्ता सुन्दरी" की आगोश में जकड़े ये मदहोश लोग क्या जानेंगे आम आदमी की पीड़ा और विवशता? वैसे भी वातानुकूलित कमरे में दुख कम दिखाई पड़ते होंगे। तो फिर सवाल उठता है कि क्या यूँ ही चुप रहा जाय? नहीं बिल्कुल नहीं। ये अंग्रेज भी नहीं हैं जो इन्हें मार-पीट के भगाया जा सके। फिर उपाय क्या है?
योगासन की दिशा में बाबा रामदेव के द्वारा किये गए कार्य को देश कभी नहीं भुला सकता। उन्होंने जन जागरणका जो काम किया है वह अतुलनीय है। लेकिन ये सत्ताधारी "गाँधीवाद" और "योग - आध्यात्म" की भाषा कहाँ समझ रहे हैं। ये तो सिर्फ "वोट" की भाषा समझते हैं और अन्ना और रामदेव के पास जबरदस्त जन-समर्थन भी है।
अतः बाबा जी आपने बहुत योगासन सिखाया और आगे भी सिखायें। लेकिन एक सलाह है कि उसके साथ साथ यहाँ की सीधी सादी जनता को "वोटासन" के "रहस्य" और "उपयोगिता"भी उसी तरह से सिखायें जिस तरह से योग सिखा रहे हैं ताकि इन बेलगाम सत्ताधीशों के होश अगले चुनाव तक ठिकाने आ जाए। वैसे मुझे यह भी मालूम है बाबा - मेरे जैसे कम "घास-पानी" वाले लोगों की बात पर कौन तबज्जो देगा। जय-हिन्द।
मेरी पत्नी बहुत पान खाती है और बाबाजी प्रतिदिन "विदाउट फेल" इन बुराईयों से कोसों दूर रहने की ताकीद करते रहते हैं। पत्नीकी "रामदेवीय भक्ति" से प्रभावित होकर बहुत विनम्रता मैंने उनसे पूछने का दुस्साहस किया कि जब बाबा पान, गुटखा आदि खाने से इतने जोर से मना करते हैं और आप इतने श्रद्धाभाव और प्रभावी (शोर करके) ढंग से उन्हेंरोज सुनतीं हैं, फिर ये पान क्यों खातीं हैं? मेरे सौभाग्य से उन्हें उस दिन गुस्सा नहीं आया और उनके पास कोई उचित जवाब भी नहीं था अपनी आदत की विवशता के अतिरक्त।
जिस तरह से एक चावल की जाँच से पूरी हाँडी में भात बनने या न बनने का पता चल जाता है, ठीक उसी तर्ज पर मैं क्या कोई भी सोचने पर विवश हो जायेगा कि बाबा की सभाओं में उनकी बातों को समर्थन करने वाले क्या ऐसे ही लोग अधिक हैं? जो पान, गुटखा, शराब, खैनी, कोल्ड ड्रींक्स आदि छोड़ने की प्रतिदिन शपथ लेते हैं और योगासन करने के वादे के साथ हाथ उठाकर रामदेव जी के आह्वान का प्रत्यक्षतः समर्थन तो करते हैं पर व्यवहार में नहीं।
फिर याद आती है विगत दिनों भ्रष्टाचार उन्मूलन के लिए उनके द्वारा चलाए गए "भारत स्वाभिमान आन्दोलन" के तहत उनके हुंकार की। वही भीड़ और वही समर्थन की जिसके दम पर उन्होंने रामलीला मैदान में अनशन के नाम पर हजारों की भीड़ इकट्ठा कर ली। फिर शासक वर्ग की मिमियाहट, बाद में रात को अचानक उसी शासकीय पक्ष के आक्रामक रूख की भी याद आती है जिसे "मीडिया" के सौजन्य से पूरे देश ने देखा और सुना।
लोगों ने यह भी देखा सुना कि जो बाबा सबेरे में स्वयं "राह कुर्बानियों की न वीरान हो - तुम सजाते ही रहना नये काफिले" जोर जोर से गा रहे थे, वही रात में जान बचाने के लिए एक बिशेष "रक्षा घेरा" बनबा कर मंच से कूदे और लोगों में "कूदासन" की होड़ लग गयी। इसी क्रम में उन्हें "स्त्री-वस्त्र" तक भी धारण करना पड़ा। देखते ही देखते "राह कुर्बानियों" की एकाएक वीरान हो गयी। खैर----
शासकीय पक्ष के व्यवहार के क्या कहने? दिन में "पुष्प" से स्वागत और रात में "कटार" से वार। वाह क्या सीन था? "क्षणे रूष्टा - क्षणे तुष्टा"। क्या कहा जाय इस नाटकीय मोड़ को? शायद पाकिस्तानी तानाशाह भी इतनी जल्दी, वो भी एकदम विपरीत दिशा में, अपना विचार बदलने में शर्म महसूस करेंगे। एकाएक सत्ता पक्ष के लोगों को महाभारत के संजय की तरह "दिव्य दृष्टि" मिली और बाबा रामदेव "आदरणीय" से "महाठग" के रूप में अवतरित हो गए। सत्ता पक्ष ने "दिग्विजयी मुद्रा" में इसकी घोषणा भी शुरू कर दी और यह क्रम अब भी चल ही रहा है। पता नहीं कब तक चलेगा?
चाहे अन्ना हजारे हों या बाबा रामदेव - दोनों ने देश की नब्ज को पहचाना और ज्वलन्त मुद्दे भी उठाये जिसका कुल लब्बोलुआब भ्रष्टाचार ही रहा। पता नहीं "भ्रष्टाचार का मुद्दा" अब कहाँ चला गया? अब तो मुद्दा "सरकार बनाम रामदेव और अन्ना" के अहम् की टकराहट की ओर मुड़ गया है जो देश के स्वस्थ वातावरण के लिए किसी भी हालमें ठीक नहीं। गाँव की पान दुकान से लेकर दिल्ली तक जिसे देखो सब बहस में भिड़े हुए हैं। मजे की बात है कि सब भ्रष्टाचार के खिलाफ हैं मगर भ्रष्टाचार अंगद के पाँव की तरह अडिग है।
जहाँ तक मेरी व्यक्तिगत समझदारी है वर्तमान सरकार के वर्तमान रुख को मैं अंग्रेजी हुकूमत की "फोटोकापी" से कम नहीं देख पाता। जब हालात ऐसे हैं तब क्या गाँधीवादी कदम और क्या आध्यामिक योगासन? क्या सरकार पर कोई असर पड़ेगा? "सत्ता सुन्दरी" की आगोश में जकड़े ये मदहोश लोग क्या जानेंगे आम आदमी की पीड़ा और विवशता? वैसे भी वातानुकूलित कमरे में दुख कम दिखाई पड़ते होंगे। तो फिर सवाल उठता है कि क्या यूँ ही चुप रहा जाय? नहीं बिल्कुल नहीं। ये अंग्रेज भी नहीं हैं जो इन्हें मार-पीट के भगाया जा सके। फिर उपाय क्या है?
योगासन की दिशा में बाबा रामदेव के द्वारा किये गए कार्य को देश कभी नहीं भुला सकता। उन्होंने जन जागरणका जो काम किया है वह अतुलनीय है। लेकिन ये सत्ताधारी "गाँधीवाद" और "योग - आध्यात्म" की भाषा कहाँ समझ रहे हैं। ये तो सिर्फ "वोट" की भाषा समझते हैं और अन्ना और रामदेव के पास जबरदस्त जन-समर्थन भी है।
अतः बाबा जी आपने बहुत योगासन सिखाया और आगे भी सिखायें। लेकिन एक सलाह है कि उसके साथ साथ यहाँ की सीधी सादी जनता को "वोटासन" के "रहस्य" और "उपयोगिता"भी उसी तरह से सिखायें जिस तरह से योग सिखा रहे हैं ताकि इन बेलगाम सत्ताधीशों के होश अगले चुनाव तक ठिकाने आ जाए। वैसे मुझे यह भी मालूम है बाबा - मेरे जैसे कम "घास-पानी" वाले लोगों की बात पर कौन तबज्जो देगा। जय-हिन्द।
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