Thursday, June 23, 2011

कांग्रेस की दिग्विजयी भाषा

पिछले दो आम चुनावों में लगातार कांग्रेस की मनमोहन सिंह जी के नेतृत्व में जोड़-तोड के सरकार क्या बन गयी, कांग्रेस के कई नेताओं को भ्रम हो गया है कि शायद उन्होंने सदा के लिए "दिग्विजय" कर लिया है और बहुतेरे ऐसे हैं जिनकी भाषा लगातार तल्ख होती जा रही है। जबकि हकीकत यह है कि अकेले कांग्रेस को तो अभी पूर्ण बहुमत है ही पिछली बार।

अपने छात्र जीवन को याद करता हूँ तो इमरजेन्सी से पहले भी कुछ महत्वपूर्ण कांग्रसियों की भाषा में भी
ऐसी ही तल्खी आ गयी थी। परिणाम कांग्रेसजनों के साथ साथ पूरे देश ने देखा। किसी को यह भी शिकायत हो सकती है कि मैं किसी से प्रभावित होकर किसी के "पक्ष" या "विपक्ष" में लिख रहा हूँ। एक सच्चा रचनाकार का नैतिक धर्म है कि सही और गलत दोनों को समय पर "आईना" दिखाये। सदा से मेरी यही कोशिश रही है और आगे भी रहेगी। अतः किसी तरह के पूर्वाग्रह से मुक्त है मेरा यह आलेख।

"विनाश काले विपरीत बुद्धि" वाली कहावत हम सभी जानते हैं और कई बार महसूसते भी हैं अपनी अपनी निजी जिन्दगी में भी। अलग अलग प्रसंग में दिए गए विगत कई दिनों के कांग्रेसी कथोपकथन की जब याद आती है तो कई बार सोचने के लिए विवश हो जाता हूँ कि कहीं यह सनातन कहावत फिर से "चरितार्थ" तो नहीं होने जा रही है इस सवा सौ बर्षीय कांग्रेस पार्टी के साथ?

लादेन की मृत्यु के बाद एक इन्टरव्यू में आदरणीय दिग्विजय सिंह जी का लादेन जैसे विश्व प्रसिद्ध आतंकवादी के प्रति "ओसामा जी" जैसे आदर सूचक सम्बोधन कई लोगों को बहुत अखरा और देश के कई महत्वपूर्ण लोगों ने अपनी नकारात्मक प्रतिक्रिया भी व्यक्त की उनके इस सम्बोधन पर। लेकिन इसके विपरीत मुझे कोई दुख नहीं हुआ। बल्कि खुशी हुई चलो आतंकवादी ही सही, लेकिन एक मृतात्मा के प्रति भारत में प्रत्यक्षतः सम्मान सूचक शब्दों के अभिव्यक्ति की जो परम्परा है, कम से कम उसका निर्वाह दिग्विजय जी ने तो किया?

मैं रहूँ न रहूँ, दिग्विजय जी रहें न रहें, लेकिन रामदेव बाबा ने जो काम "आम भारतवासी" के लिये किया है उसे यहाँ की जनता कभी नहीं भूल पायेगी। एक शब्द में कहें तो बाबा रामदेव अपने कृत्यों से आम भारतीयों के दिल में बस गए हैं। "योग द्वारा रोग मुक्ति", के साथ साथ जन-जागरण में उनकी भूमिका को नकारना मुश्किल होगा किसी के लिए भी। बाबा राम देव करोड़ों भारतीय समेत वैश्विक स्तर पर भी लोगों के दिलों पर स्वाभाविक रूप से आज राज करते हैं। ऐेसा सम्मान बिना कुछ "खास योगदान" के किसी को नहीं मिलता।

दिग्विजय उवाच - "रामदेव महाठग है, न तो कोई आयुर्वेद की डिग्री और न ही योग की और चले हैं लोगों को ठीक करने" इत्यादि अनेक "आर्ष-वचनों" द्वारा उन्होंने रामदेव जी के सतकृत्यों के प्रति अपना "भावोद्गार" प्रगट किया जिसे सारे देश ने सुना। यूँ तो उन्होंने बहुत कुछ कहा यदि सारी बातें लिखी जाय तो यह आलेख उसी से भर जाएगा क्योंकि उनके पास "नीति-वचनों" की कमी तो है नहीं और रामदेव के प्रति उनके हृदय में कब "बिशेष-प्रेम" छलक पड़े कौन जानता?

मैं कोई बाबा रामदेव का वकील नहीं हूँ। लेकिन उनके लिए या किसी भी राष्ट्रीय स्तर पर सम्मान प्राप्त व्यक्ति के प्रति ऐसे दुर्व्यवहार की कौन सराहना कर सकता है। रामदेव जी अपने आन्दोलन के क्रम में "अपरिपक्व निर्णय" ले सकते हैं, कुछ गलतियाँ उनसे हो सकतीं हैं लेकिन सिर्फ इस बात के लिए उनके जैसे "जन-प्रेमी" के खिलाफ इतना कठोर निर्णय वर्तमान सरकार के दिवालियेपन की ओर ही तो इशारा करता है। उस पर तुर्रा ये कि दिग्विजय जी को वाक्-युद्ध में "दिग्विजय" करने के लिए छोड़ दिया गया हो। अच्छा संकेत नहीं है। सरकारी महकमे सहित कांग्रेस के बुद्धिजीवियों को इस पर विचार करने की जरूरत है कम से कम भबिष्य में कांग्रेस के "राजनैतिक स्वास्थ्य" के लिए।

जहाँ तक मुझे पता है कि गुरूदेव टैगोर ने अपने पठन-पाठन का कार्य घर पर ही किया इसलिए उनके पास भी कोई खास "स्कूली डिग्री" नहीं थी। फिर भी उन्हें "नोबेल पुरस्कार" मिला। लेकिन ऊपर में वर्णित दिग्विजय जी की डिग्री वाली बात को आधार माना जाय तो गुरुदेव को विश्व समुदाय ने नोबेल पुरस्कार देकर जरूर "गलती" की? एक बिना डिग्री वाले आदमी को नोबेल पुरस्कार? लेकिन ये सच है जिसे पूरा विश्व जानता है। फिर रामदेव जी की "डिग्री" के लिए दिग्विजय जी को इतनी चिन्ता क्यों? जबकि आम भारतीयों ने उनके कार्यों सहर्ष स्वीकार किया है।

आदरणीय दिग्विजय जी भारतीय लोकतंत्र का सबसे बड़ा मंदिर है संसद और हमारे सैकड़ों सांसदों को "राष्ट्र-गान" तक पूरी तरह से नहीं आता है। तो क्या उन्हें सांसद नहीं माना जाय क्या? आप ही गहनता से विचार कर के बतायें, देशवासियों को उचित दिशा-निर्देश दें। और ऐसे ही हालात में मेरे जैसे कवि के कलम से ये पंक्तियाँ स्वतः निकलतीं हैं कि -

राष्ट्र-गान आये ना जिनको, वो संसद के पहरेदार।
भारतवासी अब तो चेतो, लोकतंत्र सचमुच बीमार।।

(नोट - पूरी रचना पढ़ने और सुनने का लिन्क क्रमशः http://manoramsuman।blogspot।com/2011/04/blog-post_29।html और http://www.youtube.com/watch?v=c4qhAKmfON0 है।}

"अन्ना" - आज एक नाम न होकर एक "संस्था" बन गए हैं अपनी निष्ठा और "जन-पक्षीय" कार्यों के कारण। अन्ना एक गाँधीवादी संत हैं सच्चे अर्थों में। उन्होंने भी जन-जागरण किया। आन्दोलन चलाया। लोकपाल पर पहले सरकारी सहमति बनी अब कुछ कारणों से असहमति भी सामने है। फिर अन्ना ने 16 अगस्त से अनशन और आन्दोलन की बात की। यह सब लोकतंत्र में चलता रहता है। सरकार में भी समझदार लोग हैं। जरूर इसका समाधान तलाशेगे, अन्ना से आगे भी बात करेंगे। अभी नहीं जब तक भारत में प्रजातंत्र है, ये सब चलता रहेगा। यह "लोकतंत्रीय स्वास्थ" के लिए महत्वपूर्ण भी है।

लेकिन दिग्विजय जी कैसे चुप रह सकते हैं? तुरत बयान आया उनकी तरफ से कि यदि अन्ना आन्दोलन करेंगे तो उनके साथ भी "वही" होगा जो रामदेव के साथ हुआ। क्या मतलब इसका? क्यों बार बार एक ही व्यक्ति इस तरह की बातें कर रहा है? क्यों ये इस तरह के फालतू और भड़काऊ बातों की लगातार उल्टी कर रहे हैं? कहाँ से इन्हें ताकत मिल रही है? कहीं दिग्विजय जी की "मानसिक स्थिति" को जाँच करवाने की जरूरत तो नहीं? मैं एक अदना सा कलम-घिस्सू क्या जानूँ इस "गूढ़ रहस्य" को लेकिन ये सवाल सिर्फ मेरे नहीं, आम लोगों के दिल में पनप रहे हैं जो आने वाले समय में ठीक नहीं होगा कांग्रेस के लिए। कांग्रेस में भी काफी समझदार लोग हैं। मेरा आशय सिर्फ "ध्यानाकर्षण" है वैसे कांग्रेसियों के लिए जो ऐसी बेतुकी बातों पर अंकुश लगा सकें।

करीब तीन दशक पहले मेरे मन भी संगीत सीखने की ललक जगी। कुछ प्रयास भी किया लेकिन वो शिक्षा पूरी नहीं कर पाया। उसी क्रम में अन्य रागों के अतिरिक्त मेरा परिचय "राग-दरबारी" से भी हुआ। यह "राग-दरबारी" जिन्दगी में भी बड़े काम की चीज है जिसे आजकल चलतऊ भाषा में अज्ञानी लोग "चमचागिरी" कहते हैं। यदि हम में से कोई इस राग के "मर्मज्ञ" हो जाए तो कोई भी "ऊँचाई" पाना नामुमकिन नहीं। आज के समय की नब्ज पकड़ कर ये बात आसानी से कोई भी कह सकता है।

प्रिय राहुल जी का 41वाँ जन्म दिवस आया और कांग्रेसजनों ने इसे पूरे देश में "हर्षोल्लास" से मनाया। किसी को क्या आपत्ति हो सकती है? और हर्षोल्लास से मनायें। लेकिन आदरणीय दिग्विजय जी भला चुप कैसे रह सकते? संसार का शायद ही कोई ऐसा बिषय हो जिसके वे "ज्ञाता" नहीं हैं। तपाक से राहुल जी की इसी साल शादी की चिन्ता के साथ साथ उन्हें "प्रधानमंत्री" के रूप में देखने की अपने "अन्तर्मन की ख्वाहिश" को भी सार्वजनिक करने में उन्होंने देरी नहीं दिखायी। क्या इसे राग-दरबारी कहना अनुचित होगा? अब जरा सोचिये वर्तमान प्रधानमंत्री की क्या मनःस्थिति होगी? वे क्या सोचते होंगे?

मजे की बात है कि दिग्विजय जी इतने पुराने कंग्रेसी हैं। मंत्री, मुख्यमंत्री बनने के साथ साथ लम्बा राजनैतिक अनुभव है उनके पास। उनके वनिस्पत राहुल तो कल के कांग्रेसी कार्यकर्ता हैं। लेकिन उन्हें अपनी "वरीयता" की फिक्र कहाँ? वे तो बस अपने "राग" को निरन्तर और निर्बाध गति से "दरबार" तक पहुँचाना चाहते हैं ताकि उनकी "दिग्विजयी-भाषा" पर कोई लगाम न लगा सके। काश! मैं भी "राग-दरबारी" सीखकर अपनी तीन दशक पुरानी गलती को सुधार पाता?

1 comment:

  1. सुन्दर व्यंग, अच्छा लगा.

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