निगमानन्द जी बिना हो हल्ला के इस "असार" संसार को छोड़ कर चले गए और छोड़ गए गंगा को उसकी उसी पीड़ा के साथ जिसके लिए उन्होंने जान दिया। इसी के साथ उनके जननी और जनक की मानसिक छटपटाहट को भी समझने की जरूरत है। निगमानन्द कब अनशन पर बैठे? कब कोमा मे गए? प्रायः सभी अनजान। उसी अस्पताल में बाबा रामदेव के प्रति सारा देश चिन्तित लेकिन वहीं निगमानन्द के बारे में चर्चा तक नहीं। जबकि उनके भी अनशन का उद्येश्य "सार्वजनिक-हित" ही था, अन्ना और रामदेव की तरह। मीडिया की कृपा हुई और सारा देश निगमानन्द के मरने के बाद जान पाया इसकी पृष्ठभूमि और मरने के बाद का किचकिच भी।
निगमानन्द के माता पिता ने लाश पर दावेदारी की, जो बहुत हद तक स्वभाविक भी है। संतान को नौ महीने अपने कोख में रखकर उसे पालने की पीड़ा एक माँ से बेहतर कौन जाने? यूँ तो किसी के सन्तान की मौत किसी भी माँ बाप के लिए असहनीय है लेकिन इस असहनीय पीड़ा के बाद भी यदि उस मृत सन्तान की लाश भी न मिले तो उसकी पीड़ा को सहानुभूतिपूर्वक विचार किया जाना चाहिए।
निगमानन्द मिथिला का बेटा था। जन्म से लेकर मृत्यु तक जितने भी संस्कार होते हैं और उससे जुड़े सारे धार्मिक कर्म-काण्ड का मिथिला में एक अलग महत्व है और इस दृष्टिकोण से सम्भवतः पूरे देश में सबसे अलग एवं अग्रणी। संस्कृत मे एक उक्ति भी है "धर्मस्य गुह्यं ज्ञेयो मिथिलायां व्यवहारतः"। लेकिन निगमानन्द के माता पिता को अपने पुत्र की ही लाश नहीं मिली सशक्त दावा पेश करने के बाद भी। स्थानीय प्रशासन ने भी मना कर दिया। हाँ इजाजत मिली भी तो शांति पूर्वक अंतिम संस्कार (भू-समाधि) देखने के लिए जो कि मिथिला की संस्कृति में किसी भी हाल में स्वीकार्य नहीं है कम से कम ब्राह्मण परिवार में।
जिस आश्रम में निगमानन्द रहते थे उसके प्रमुख शिवानन्द जी की "वाणी" सुनने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। वे एक पुरानी चिट्ठी को संदर्भित करते हुए बड़े ही तार्किक ठंग से फरमा रहे थे कि "एक सन्यासी का शव एक गृहस्थ को नहीं दिया जा सकता"। अन्ततोगत्वा नहीं ही दिया गया। सन्यासी का मोटा मोटी जो अर्थ जो आम जनों की भाषा में समझा जाता है वो यह कि जो व्यक्तिगत भौतिकता की मोह छोड़ कर "बहुजन हिताय बहुजन सुखाय" कार्य करे। आदरणीय शिवानन्द जी तो उस सन्यासियों के प्रमुख हैं। फिर एक "लाश" से उनका इतना जबरदस्त "मोह" कैसा? वो भी तो किसी माँ की सन्तान हैं। क्या माँ की ममता का कोई मोल नहीं? यदि हाँ तो फिर ऐसे "सन्यास" का क्या मोल? जब किसी साधु- सन्यासी का भरण-पोषण भी इस समाज की उत्पादकता पर किसी न किसी रूप में निर्भर है तो क्या उस सन्यासी का उस समाज के प्रति कोई जवाबदेही नहीं? सामाजिक सम्वेदना से कोई सरोकार नहीं?
हमारे देश में मुख्यतः दो प्रकार के महत्वपूर्ण मंदिर पाये जाते हैं - एक "आस्था" के तो दूसरा "न्याय" के। मजे की बात है कि इन दोनों मंदिरों में या इसके इर्द-गिर्द, अभीतक ज्ञात या अज्ञात जितने भी प्रकार के भ्रष्टाचार हैं, अनवरत होते हैं। क्या मजाल जो आप इनके खिलाफ आवाज उठा दें? यदि न्यायलय के खिलाफ बोले तो "न्यायिक अवमानना" का खतरा और यदि आस्था के खिलाफ बोले तो "धार्मिक गुंडई" का डर। अतः "प्रिय शिवानन्द" जी के बारे में इससे अधिक कहना खतरों से खेलने जैसा लगता है। पता नहीं किसकी "धार्मिक भावना" को चोट लग जाए? सम्वेदनाएं मरतीं जा रहीं हैं। प्रशासन के लोग की भी अपनी बेबसी है। उन्हें मंत्रियों से निर्देश मिलता है और मंत्री जी की आत्मा निरन्तर जातिगत या धार्मिक "वोट" के लिए लालायित रहती है। तो फिर वो ऐसा खतरा कभी मोल लेंगे क्या? प्रशासन ने भी माता-पिता की ममता को कुचल दिया अपने आदेश से।
aapne bilkul sahi kaha aapki link ब्लॉग जमावड़ा me aapki link jadi gai hai yaha aakar apne anubhav hame bataye
ReplyDeleteu r right yaha par aapki link jodi gai hai yaha par aapni raay aakar de dhanyabaad
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