Tuesday, June 21, 2011

धर्म का बाजार या बाजार का धर्म

कई बर्षों का अभ्यास है कि प्रतिदिन सबेरे सबेरे उठकर कुछ पढ़ा लिखा जाययह समय मुझे सबसे शांत और महफूज लगता है इस दृष्टिकोण से। लेकिन जब भी कुछ पढ़ने लिखने के लिए तत्पर होता हूँ तो मुझे दो अलग अलग स्थितियों का सामना अक्सर और आवश्यक रूप से करना पड़ता हैं।
प्रथम - टी०वी० के कई चैनलों में धार्मिक प्रवचन सुनना जिसमें विभिन्न प्रकार के "धार्मिकता का चोला पहने" लोगों के "अस्वादिष्ट" प्रवचनों को सुनना शामिल है। इसके अतिरिक्त कसरत (योग भी कह सकते), हमेशा एक दूसरे के विपरीत भबिष्य फल बताने वाली "तीन देवियों" द्वारा राशिफल से लेकर शनि का भय दिखाते हुए लगभग "शनि" (मेरी कल्पना) जैसे ही डरावने वेश-भूषा धारण किए महात्मा की "संत-वाणी" भी सुननी पड़ती है, जिनके बारे में अभी तक यह नहीं समझ पाया हूँ कि वो कुछ समझा रहे हैं या धमकी दे रहे हैं। वो भी ऊँची आवाज में। अगर टी०वी० का "भोल्युम" कम करूँ तो सुमन (श्रीमती) जी कब "शनि-सा" व्यवहार करने लगे, अनुमान लगाना कठिन है।

और दूसरा - बाजार खुलते खुलते मुझे दुकान पर पहुँच जाना पड़ता है क्योंकि पहले से कोई न कोई काम मेरे लिए "गृह-स्वामिनी" द्वारा निर्धारित
कर दिया जाता है ताकि मैं लेखन जैसे "बेकार" काम से अधिक से अधिक दूर रह सकूँ। दुकान में भी पहुँते ही देखता हूँ कि सेठ जी "मुनाफा" कमाने से पूर्व भगवान को खुश करने लिए "निजी धार्मिक अनुष्ठान" में कुछ देर तल्लीन रहते हैं। निस्सहाय खड़ा होकर सारे कृत्यों को देखना मेरी मजबूरी है क्योंकि पूजा के बाद जबतक दुकान से कोई नगदी खरीदारी न हो, उधार वाले को प्रायः ऐसे ही खड़ा रहना पड़ता है। कभी कभी तो नगदी खरीददारी वाले ग्राहक का भी इन्तजार करना मेरी विवशता बन जाती है और आज मेरी यही विवशता मेरे इस लेख के लिए एक आधार भी है।

देश में कई प्रकार के उद्योग पहले से स्थापित हैं जो अपनी नियमित उत्पादकता के कारण हमारे देश की आर्थिक व्यवस्था की रीढ़ बने हुए है और जिसकी वजह से हमारी सुख-सुविधा एवं समृद्धि में लगातारिता बनी हुई है। हाल के कुछ बर्षों कई नए प्रकार के "अनुत्पादक उद्योगों" के नाम उभर कर बहुत तेजी और मजबूती से देशवासी के सामने आये हैं एवं जो लगातार समाज को बुरी तरह से खोखला कर रहा है। उदाहरण के लिए - अपहरण-उद्योग, नक्सल-उद्योग, राजनीति-उद्योग इत्यादि। इसी कड़ी में एक और उद्योग की ठोस और "सनातनी उपस्थिति" से इन्कार करना मुश्किल है और वो है "धर्म का उद्योग"

अभी तक जितने भी ज्ञात-अज्ञात मुनाफा कमाने के संसाधन और क्रिया-कलाप हैं उसमें धर्म सर्वोपरि है। साईं बाबा के साथ साथ कई कई बाबाओं के "बिना श्रम-अर्जित" सम्पत्तियों का मीडिया द्वारा उपलब्ध कराये गए ब्योरे के आधार पर यह कहना किसी के लिए भी कठिन नहीं है। इस उद्योग की बिशेषता यह है कि इसको स्थापित करने में कोई खास
प्रारम्भिक खर्च नहीं है - बस फायदा ही फायदा। केवल आपके वस्त्र "धार्मिकता" के आस पास दिखते हों। कभी कभी "लच्छेदार-भाषा" और लोक लुभावन "व्यावसायिक-मुस्कान" के साथ पाप-पुण्य का "भय" दिखाते हुए चुटकुलेबाजी करने का भी हुनर आप में होना चाहिए और इन सब के लिए कोई खास "पूँजी" की आवश्यकता तो पड़ती नहीं?

बाला जी का मंदिर हो या चिश्ती का दरगाह, आप जहाँ भी जाइये तो उस स्थल से बहुत पहले ही आपके आस-पास किसी न किसी तरह
कुछ "धार्मिक एजेन्टों" का अस्वाभाविक अवतार अनचाहे-रूप से स्वतः हो जाता है जो आपके पीछे हाथ धो कर पड़ जाते हैं और अपने को उस "सर्वशक्तिमान" का सच्चा दूत बताते हुए उनसे "डाइरेक्ट साक्षात्कार" या "पैरवी" कराने का वादा तब तक करते रहते हैं जब तक आप उसके "वश" में न हो जाएं या डाँट न पिलावें। फिर शुरु होता है पैसा ऐंठने का एक से एक "चतुराई भरा कुचक्र" जिससे निकलना एक साधारण आदमी के लिए मुशकिल ही होता है। सबेरे सबेरे भगवान की आराधना करने के बाद ये एजेन्ट भगवान के ही नाम पर खुलेआम "मुनाफा" कमाने के लिए कई प्रकार के जायज(?) नाजायज जुगत में तल्लीन हो जाते हैं जिसके शिकार अक्सर वे सीधे-सादे साधारण इन्सान होते हैं जो बड़ी कठिनाई से पैसे का जुगाड़ करके अपने आराध्य का दर्शन करने आते हैं।

और बाजार में क्या होता है? बिल्कुल यही दृश्य, यही कारोबार। सारे के सारे दुकानदार अपना दुकान खोलते ही अपने अपने आराध्य की आराधना करते हैं और फिर शुरू हो जाता है अधिक से अधिक मुनाफा कमाने का
कुचक्र। एक लक्ष्य मुनाफा बटोरना है चाहे जो करना पड़े। इनके भी मुख्य शिकार वही "आम आदमी" हैं जो अपनी दैनिक जरूरतों को पूरा करने के लिए बड़ी मुश्किल से बाजार का रूख कर पाते हैं वो भी सिर्फ जीने भर की जरूरतों के लिए।

कोई धर्म-सथल हो या बाजार, सब जगह की "नीति और रीति" एक है। यदि चलतऊ भाषा में कहा जाय तो अधिक से अधिक अपने ग्राहकों को "छीलना"। इसके लिए वे आमतौर पर वाकचातुर्यता की चासनी में लपेट कर झूठ और कई प्रकार के तिकड़म का सहारा लेते हैं। मजे की बात है कि दोनों (धर्म-स्थल और बाजार)जगहों में ये सारे फरेब भगवान की "आराधना" के बाद ही शुरू होता है मानो भगवान से "इजाजत" लेकर। और "बेचारे" भगवान का क्या दोष? वे तो पत्थर के हैं। क्या कर सकते हैं? सब चुपचाप देखते रहते हैं सारे अन्याय को। आखिर उन्हीं के "परमिशन" से तो शुरू किया जाता है यह कातिल खेल।

वैश्वीकरण के बाद अपने देश में बाजारवाद पर बहुत चर्चाएं हुईं। इसकी अच्छाई और बुराई पर भी। लेकिन मेरे जैसा मूरख यह अभी तक नहीं समझ पाया कि बाजार अपना धर्म निभा रहा है या धर्म ही एक बाजार बन गया है और हठात् ये पंक्तियाँ निकल आतीं हैं कि-

बाजार और प्रभु का दरबार एक जैसा
सब खेल मुनाफे का आराधना ये कैसी?

पूरी गज़ल का लिन्क ये http://manoramsuman.blogspot.com/2011/05/blog-post_09.html है

6 comments:

  1. यह तो आजकल हमारे समाज का एक हिस्सा बन चुका है | किसी को नहीं छोड़ा आपने सार्थक आलेख , बधाई

    ReplyDelete
  2. EK accha aur sargarbhit lekh...

    Maithil vayana sab jan mittha...

    ReplyDelete
  3. बहुत सही कटाक्ष किया भाईजी...

    बस एक बात जोड़ना चाहूंगी कि यह सत्य है कि धर्म का बाज़ार सा प्रोफिटेबल आज दूसरा कोई बाज़ार नहीं, चाहे वह किसी भी धर्म का क्यों न हो और यह भी सत्य कि इसकी दूकान बसाने में कोई बहुत बड़ी पूंजी नहीं लगती...पर यह दुकानदारी चलने के लिए जितनी वाक्पटुता और लोमड़ी सा दिमाग चाहिए वह सबके बस का नहीं होता...

    ब्रांड बनाने और चलने में एनी किसी भी उद्योग की तरह या कहें उससे अधिक प्लानिंग की जरूरत पड़ती है इसमें...

    ReplyDelete
  4. This comment has been removed by the author.

    ReplyDelete
  5. "ब्लोगर्स मीट वीकली {३}" के मंच पर सभी ब्लोगर्स को जोड़ने के लिए एक प्रयास किया गया है /आप वहां आइये और अपने विचारों से हमें अवगत कराइये/हमारी कामना है कि आप हिंदी की सेवा यूं ही करते रहें। सोमवार ०८/०८/११ कोब्लॉगर्स मीट वीकली (3) Happy Friendship Day में आप आमंत्रित हैं /

    ReplyDelete
  6. श्यामल
    आशीर्वाद
    लेख बहुत सुंदर और झन्नाटेदार,स्टीक सत्य (धन्यवाद )
    पढ़ा बार बार पढ़ा सत्य चित्र उजागर हुआ
    लिखने की कलम ठंडी ना होने पाए

    ReplyDelete